
Yagya : तक्षक नाग जिसके डसने से महाराजा परीक्षित की मृत्यु हुई थी, के बारे में प्राप्त इस जानकारी कि उसने इंद्र के यहां शरण ली है। तब सर्प यज्ञ कर रहे राजा जनमेजय ने पुरोहितों से कहा कि वे ऐसे मंत्र पढ़ कर हवन करें कि इंद्र के साथ तक्षक भी इस हवन कुंड में आकर भस्म हो जाए। जनमेजय की करुण पुकार सुन हवन करने वाले ऋषियों ने ऐसे ही मंत्रों को पढ़ कर आहुति डालना शुरु किया और परिणामस्वरूप आकाश में इंद्र और तक्षक दिखाई पड़े। इंद्र तो यज्ञ को देख कर बहुत घबड़ा गए और तक्षक को उसके हाल पर छोड़ कर चलते बने। अब अकेला तक्षक आहुतियों के साथ यज्ञ के समीप पहुंचने लगा।
राजा जनमेजय ने आस्तिक से वर मांगने को कहा
तभी यज्ञ कर रहे ब्राह्मणों ने कहा राजा जनमेजय से कहा, राजन ! अब आपका काम ठीक हो रहा है इसलिए इस ब्राह्मण कुमार को प्रसन्न हो कर वर दे सकते हैं। यज्ञ आचार्यों की बात सुनकर उन्होंने ब्राह्मण कुमार की ओर देखते हुए कहा, मैं तुमसे प्रसन्न हूं इसलिए तुम कठिन से कठिन वर भी मांग सकते हो। यह वो समय था जब तक्षक यज्ञ कुंड के बिल्कुल नजदीक पहुंच कर गिरने ही वाला था, हे राजन ! आप देना ही चाहते हैं तो मुझे यही वर दे दीजिए कि सर्प यज्ञ बंद हो जाए और इसमें गिरते हुए सर्प बच जाएं। इस पर राजा ने कुछ अप्रसन्न हो कर कहा, तुम यह नहीं सोना चांदी, हीरे-जवाहरात गौ, भूमि आदि कुछ भी मांग लो। राजा का प्रस्ताव सुनकर आस्तिक ने कहा, राजन ! मुझे सोना चांदी धन सम्पदा आदि कुछ भी नहीं चाहिए, मैं तो अपने मातृकुल के कल्याण के लिए इस यज्ञ को बंद कराना चाहता हूं। राजा जनमेजय बार-बार वर के रूप में दूसरे प्रस्ताव करते रहे किंतु ब्राह्मण कुमार उन पर राजी नहीं हुआ। तभी यज्ञ करा रहे ब्राह्मण भी कहने लगे कि राजन यह ब्राह्मण कुमार जो मांग रहा है, वह इसे मिलना ही चाहिए। दरअसल जिस समय इंद्र ने तक्षक को उसके हाल पर छोड़ दिया उस समय आस्तिक ने मंत्र पढ़ कर तक्षक के लिए तीन बार कहा कि ठहर जा, ठहर जा, ठहर जा। इसी कारण से तक्षक पृथ्वी और आकाश के बीच लटकता रहा और यज्ञकुंड में गिरने से बच गया।
