Jaratkaru Marriage : जंगल में घूमते हुए पितरों से हुई जरत्कारू ऋषि की भेंट, उनके आग्रह पर ब्रह्मचर्य छोड़ किया विवाह 

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Jaratkaru Marriage : जंगल में घूमते हुए पितरों से हुई जरत्कारू ऋषि की भेंट, उनके आग्रह पर ब्रह्मचर्य छोड़ किया विवाह 

Jaratkaru Marriage : नाग वंश में एक थे जरत्कारु जो धर्मात्मा स्वभाव के थे। अपने इन्हीं श्रेष्ठ भाइयों की तरह उन्होंने कठोर तप करके अपने शरीर को जीर्ण-शीर्ण काया का बना लिया जिसके कारण उनका नाम ही जरत्कारु हो गया। कश्यप ऋषि और कद्रु के एक हजार नागपुत्रों में एक नाग कन्या भी थी जिसने अपने भाइयों का साथ छोड़ अपने को कठिन तपस्या में लगाया जिसके कारण उसका शरीर भी सूख गया और अपनी जीर्ण शरीर के कारण उसका नाम भी जरत्कारु पड़ गया। 

जरत्कारू को उलटे लटके मिले पितर

धर्म कर्म और स्वाध्याय में लीन रहने के कारण जरत्कारु ऋषि निर्भय हो कर संसार में घूमते थे। उन दिनों राजा परीक्षित का शासन चल रहा था। मुनिवर जरत्कारु का नियम था कि जहां भी सूर्यास्त हुआ वहीं पर वे रुक जाते। वैसे वे तीर्थों में स्थान करते और कठोर नियमों का पालन करते थे जिसके कारण विषयों से दूर ही थे। ऐसे ही विचरण करते हुए एक स्थान पर उन्होंने देखा कि कुछ पितर नीचे की ओर मुंह करके गड्ढे की ओर देख रहे हैं। वे खस घास के एक तिनके का सहारा लिए लटके थे और खस की जड़ को चूहा धीरे-धीरे कुतर रहा था। जरत्कारु मुनि ने पितरों से इसका कारण पूछा. 

पितरों ने अपना परिचय देते हुए बताया वे यायावर नाम के ऋषि हैं वंश परम्परा क्षीण हो जाने से हम पुण्यलोकों से गिर चुके हैं और घोर नरक में जा रहे हैं

पितरों ने बतायी वंश नष्ट होने की चिंता

पितरों ने अपना परिचय देते हुए बताया, वे यायावर नाम के ऋषि हैं। वंश परम्परा क्षीण हो जाने से हम पुण्यलोकों से गिर चुके हैं और घोर नरक में जा रहे हैं। उन्होंने कहा हमारे वंश में एक तपस्वी है जिसका नाम जरत्कारु है। यदि वह कहीं मिले तो उससे कहना कि तुम विवाह कर संतान पैदा करो और वंश को आगे बढ़ाओ। जड़ को कुतरने वाला चूहा और कोई नहीं महाबली काल है। इतना बताते हुए पितरों ने उनका परिचय पूछ लिया। उनकी बातें सुनकर जरत्कारु का गला रुंध गया, फिर अपने को संभाल कर हाथ जोड़ कर बोला, आप लोग मेरे पिता और पितामह हैं। मैं ही आपका अपराधी पुत्र जरत्कारु हूं। आप मुझे दंड दीजिए।   

पितरों की खातिर संकल्प छोड़ने को हुए राजी

इतना सुनते ही पितरों ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा, बेटा पहले तो अपनी वैवाहिक स्थिति स्पष्ट करो। इस पर जरत्कारु ने कहा कि उसकी इच्छा तो अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए स्वर्ग प्राप्त करने की है। लेकिन आप लोगों की स्थिति देख कर अब मैने ब्रह्मचर्य के निर्णय को पलटते हुए आपकी आज्ञा के अनुसार विवाह करने का निश्चय किया है। यदि मुझे मेरे ही नाम की कन्या मिल गयी तो भिक्षा के रूप में उसे स्वीकार कर पत्नी बनाऊँगा और आपके कल्याण के लिए मुझे से पुत्र होगा जिसके प्रयासों से आप परलोक में सुख से रहेंगे। 

वासुकि ने कराया दोनों का विवाह

इसके बाद पृथ्वी पर विचरते हुए वे एक जंगल में गए और वहां पर तीन बार धीरे-धीरे बोले, मैं कन्या की याचना करता हूं ताकि मैं अपने पितरों का कष्ट मिटा सकूं। इस बात उनकी खोज में निकले नागराज वासुकि के भाइयों ने सुना और सीधे नागराज के पास जाकर पूरी बात बताई तो उन्होंने अपनी बहन को भिक्षा के रूप में समर्पित करना चाहा। इस पर जरत्कारु ने इसका नाम क्या है दूसरी बात है कि मैं इसका भरण पोषण नहीं करूंगा। नागराज वासुकि ने जवाब दिया, इस तपस्विनी कन्या का नाम जरत्कारू है, इसका भरण पोषण और रक्षण तो मैं ही करूंगा। इसका जन्म तो आपके लिए ही हुआ है। जरत्कारू ऋषि ने इन बातों को मानते हुए एक शर्त और रखी कि यदि इसने कभी मेरा अप्रिय कार्य किया तो मैं इसे छोड़ दूंगा। वासुकि ने इसे भी माना तो उन्हें अपने घर ले जा कर विधिपूर्वक विवाह कराया और जरत्कारू अपनी पत्नी के साथ नागराज वासुकि के एक भवन में रहने लगे।  

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