गरुड़ ने चोंच और पंजों से बुरी तरह कुचल कर चक्र को ही तोड़ दिया और अमृत कलश लेकर वायु की तेज गति से वहां से उड़ चले।
Dharam : देवताओं को लहूलुहान कर घायल करने के बाद गरुड़ सूर्य की किरणों के समान सुनहरा शरीर धारण कर बहुत सी स्पीड में अमृत वाले स्थान पर पहुंचे जहां की धधकती ज्वाला को वो पहले ही शांत कर चुके थे। उन्होंने देखा अमृत कलश के पास लोहे का एक चक्र तेजी से घूम रहा है जिसमे हजारों नुकीले अस्त्र लगे हैं। चक्र के कारण अमृत कलश की सुरक्षा अभेद्य थी लेकिन गरुड़ ने बड़ी ही चालाकी से अपना आकार बहुत छोटा किया और चक्र की गति का अनुमान कर उसके आरों के बीच से बिना किसी भय के अंदर घुस गए। उनका तो एक ही लक्ष्य था अपनी मां की दासता दूर करने के लिए अमृत की प्राप्ति।
अमृत कलश की अभेद्य सुरक्षा ध्वस्त
अंदर प्रवेश करने के बाद देखा कि दो भयंकर सर्प लपलपाती जीभ, चमकती आंखें और आग जैसा शरीर लिए रखवाली कर रहे हैं। उनकी आंखों से ही जहर निकल रहा था। गरुड़ ने फिर से धूल वाला फार्मूला अपनाया और उसे झोंक कर उनकी आंखें बंद कर दीं। चोंच और पंजों से उन्हें बुरी तरह कुचल कर चक्र को ही तोड़ दिया और अमृत कलश लेकर वायु की तेज गति से वहां से उड़ चले।
विष्णु जी ने प्रसन्न हो गरुड़ को बनाया वाहन
आसमान से अपने घर की ओर जाते हुए उन्हें विष्णु जी मिले। बातचीत से पता लगा कि गरुड़ की इच्छा स्वयं अमृत पान की नहीं है जिससे प्रसन्न होकर बोले, गरुड़ ! तुम्हारी भावना सुन कर मैं प्रसन्न हूं इसलिए तुम्हें वर देना चाहता हूं। तुम मनचाही वस्तु मांग सकते हो। जिसे भगवान का साथ मिल जाए, उसे और क्या चाहिए सो गरुड़ ने कहा, एक तो आप मुझे अपनी ध्वजा में सदैव अपने पास रखिए और मैं बिना अमृत पान के ही अजर-अमर हो जाऊं। उनके ऐसा ही होगा कहने पर गरुड़ बोले, भगवान आप भी कुछ मांग लीजिए तो उन्होंने अपना वाहन बनने को कहा। इस वार्तालाप और वरदान के आदान प्रदान के बाद गरुड़ अमृत लेकर आगे चले।
स्वयं की प्रशंसा से बचना चाहिए
अब तक धूल का गुबार हटने से इंद्र की आंख खुल चुकी थी। उन्होंने देखा अमृत कलश गायब है तो क्रोध में वज्र चलाया तो हंसते हुए गरुड़ ने कहा, जिनकी हड्डियों से यह वज्र बना है, मैं उनके सम्मान में अपना एक पंख स्वयं ही छोड़ देता हूं लेकिन तुम उसका भी अंत नहीं कर पाओगे। पंख को गिरते हुए देख लोग प्रसन्न हुए और बोले, जिसका भी ये पंख हो उस पक्षी का नाम सुवर्ण हो। पक्षिराज गरुड़ की शक्ति और आत्मविश्वास देख इंद्र भी चकित रह गए, पक्षिराज मैं तुम्हारे साथ मित्रता कर तुम्हारे बल का आंकलन करना चाहता हूं। इस पर गरुड़ ने विनम्रता से कहा, सत्पुरुषों को कभी भी स्वयं की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए। लेकिन मित्र बना लिया है तो बताता हूं कि मैं अपने एक पंख पर पृथ्वी पर्वत, वन और समुद्र के साथ ही इसके ऊपर रहने वाले आप सब लोगों को भी लेकर बिना थके उड़ सकता हूं। इस पर तो इंद्र ने घनिष्ठ मित्रता का प्रस्ताव रख दिया।
सर्प बने गरुड़ का भोजन
इंद्र ने घनिष्ठ मित्र गरुड़ से विनम्रता पूर्वक कहा, यदि आपको इस अमृत की आवश्यकता न हो तो इसे मुझे वापस कर दें क्योंकि जिन्हें इसे आप देंगे वो बाद में मुझे बहुत तकलीफ देंगे। इस पर गरुड़ ने कहा, मैं भी उन्हें पिलाना नहीं चाहता किंतु अमृत देने पर ही मेरी माता दासता से मुक्त होंगी। मैं इसे ले जाकर जहां पर रखूंगा, आप वहां से इसे उठा लेना। इसके बदले में गरुड़ ने इंद्र से वर मांगा, ये बलवान सर्प ही मेरे भोजन की सामग्री बनें जिनके छल के कारण मेरी मां का दासत्व का पालन करना पड़ा।
कुशा की पवित्रता और सर्पों की जीभ
इंद्र के साथ तय होने के बाद गरुड़ सर्पों के स्थान पर आए जहां उनकी माता इंतजार कर रही थीं। उन्होंने प्रसन्नता से कहा, यह लो अमृत मैं ले आया लेकिन इसे पीने में जल्दबाजी मत करो। मैं इसे कुशा के आसन पर रखता हूं, तब तक तुम स्नान करके पवित्र हो लो और मेरी मां को दासत्व से मुक्त करो। सर्प स्नान करने के लिए गए तो इंद्र अमृत कलश उठा कर स्वर्ग में वापस ले गए। अमृत कलश को न देख कर सर्पों को समझने में देर नहीं लगी कि सौतेली मां को छल से दासी बनाने का फल मिल गया। सर्पो ने सोचा कि हो सकता है कलश से कुछ अमृत कुशा के आसन पर लग गया हो तो उसे चाटने लगे जिससे उनकी जीभ के दो टुकड़े हो गए। अमृत कलश के स्पर्श से कुश पवित्र हो गया और गरुड़ अपनी माता के साथ सुख पूर्वक रहने लगे।