Shakuntala Challenge : राजा दुष्यंत के दरबार में अपने बेटे सर्वदमन के साथ पहुंची शकुन्तला ने राजा को याद दिलाया कि किस तरह उन्होंने उसके साथ कण्व ऋषि के आश्रम में गंधर्व विवाह किया था। लंबी चौड़ी गुहार करने और राजा द्वारा बहस करने के बाद महाराज ने चुप्पी तोड़ी और बोले, हे शकुन्तले ! मुझे नहीं मालूम की मैने तुमसे पुत्र उत्पन्न किया है। महिलाओं की तो आदत ही झूठ बोलने की होती है। तुम्हारी बात पर मै ही क्या कोई भी क्यों विश्वास करेगा। कहा महर्षि विश्वामित्र, कहां अप्सरा मेनका और कहां तुम, जाओ तुम यहां से तुरंत ही चली जाओ।
शकुन्तला ने कहा, उसका पुत्र ही बनेगा चक्रवर्ती सम्राट
राजा का फिर से इनकार सुनने के बाद शकुन्तला बोली, हे राजन ! आप मेरे साथ कपट न करें। सत्य वचन हजारों अश्वमेध यज्ञ से भी श्रेष्ठ बताया गया है और झूठ से बढ़ कर निंदनीय कुछ भी नहीं है। सारे वेदों के पठन और सभी तीर्थों के दर्शन से भी श्रेष्ठ है सत्य, वास्तव में सत्य सबसे बड़ा धर्म है। इसके बाद चुनौती देते हुए शकुन्तला ने कहा, आप मुझे झूठा बता रहे हैं जबकि असत्य तो आप ही बोल रहे हैं। मैं भी किसी झूठे व्यक्ति के साथ नहीं रहना चाहती और जहां तक मेरे पुत्र का सवाल है, आप इसे अपनाएं अथवा नहीं, एक समय मेरा यह पुत्र ही सारी पृथ्वी पर शासन करेगा। वह चक्रवर्ती सम्राट बनेगा।
अचानक हुई आकाशवाणी सुन सब चौंके
दरबार में इतना बोल कर वह मुड़ कर चलने लगी तभी यज्ञ कर्ता, पुरोहित, आचार्य और मंत्रियों के साथ बैठे राजा दुष्यंत को संबोधित करते हुए आकाशवाणी हुई, माता तो केवल साधन मात्र होती है, पुत्र पिता की ही अंश होता है क्योंकि पिता ही पुत्र के रूप में जन्म लेता है। हे राजन, तुम शकुन्तला का अपमान मत करो, सचमुच तुम्हीं ने इस बालक के पिता हो। शकुन्तला की बात सर्वथा सत्य है इसलिए तुम्हें इसे और बालक को स्वीकार कर लेना चाहिए। तुम्हारे भरण-पोषण के कारण इस बालक का नाम भरत होगा और चक्रवर्ती सम्राट बनेगा।
आकाशवाणी सुनते ही राजा ने भरत को गले लगाया
इतना सुनते ही महाराज दुष्यंत प्रसन्न होकर सभा में उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए बोले, अब आप लोगों ने देवताओं की वाणी सुन ली, मैं भी जानता हूं कि यह मेरा ही पुत्र है लेकिन यदि में शकुन्तला के कहने मात्र से इसे स्वीकार कर लेता तो प्रजा मुझ पर ही संदेह करती। शकुन्तला के साथ दुर्व्यहार करने का मेरा सिर्फ यही उद्देश्य था। उन्होंने तुरंत ही बच्चे को स्वीकार करते हुए उसके संस्कार कराए और प्यार से माथा चूम लिया। दुष्यंत ने इसके बाद पत्नी का सत्कार कर सांत्वना देते हुए कहा, देवि, मैंने तुम्हारे साथ जो संबंध बनाए थे, उसके बारे में किसी को भी नहीं मालूम था। अब सभी लोग तुम्हें हमारे राज्य की रानी के रूप में स्वीकार करेंगे। यदि मैं पहले ऐसा करता तो लोग कहते मैं तुम पर मोहित हो कर ऐसा कर रहा हूं, पुत्र के युवराज होने पर भी आपत्ति करते।
महर्षि कण्व ने भरत से कराया यज्ञ
उचित समय आने पर भरत का युवराज के रूप में अभिषेक हुआ। दूर-दूर तक भरत के शासन की चर्चा होती। धर्म का पालन करते हुए भरत ने प्रजा के हितों की भी रक्षा की। महर्षि कण्व ने भरत से गोवितत नाम का अश्वमेध यज्ञ कराया। भरत ने यज्ञ में आए हुए सभी पुरोहितों और ब्राह्मणों को यथोचित दान दक्षिणा दी किंतु महर्षि कण्व को एक हजार पद्म मुद्राएं देकर संतुष्ट किया। महाराजा भरत के नाम ही देश का नाम भरत पड़ा और वे ही भरतवंश के प्रवर्तक बने। उन्हीं के नाम से बाद के राजाओं ने अपने नाम के साथ भरत जोड़ कर प्रसिद्धि पाई।