देवोत्थान एकादशी का वास्तविक अर्थ समझें, अपने भीतर जगाएं देवत्व, जान लें कब से शुरु हो जाएंगे मांगलिक कार्य

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कार्तिक शुक्ल एकादशी को देवोत्थान एकादशी या प्रबोधिनी एकादशी कहा जाता है. कुछ क्षेत्रों में इस पर्व को डिठवन या देव उठनी भी कहा जाता है. मान्यता है कि भगवान श्री विष्णु हरि इस दिन चार माह की योगनिद्रा से जागते हैं. इस बार यह पर्व 12 नवंबर मंगलवार को होगा. भगवान के योगनिद्रा से जागने का अर्थ हर किसी को समझना आवश्यक है. जरा सोचिए क्या भगवान के जागने का भी उत्सव मनाया जाना चाहिए, ऋषियों ने इस उत्सव को स्थापित कर जनमानस को यह संदेश देने का प्रयास किया है कि मनुष्य को अपने भीतर देवत्व जगाना चाहिए. 

क्या है देवत्व

देवोत्थान एकादशी पर्व पर उपावास करने की सार्थकता तभी है जब आप अपने भीतर देवत्व को पैदा करें. देवत्व हमेशा अच्छाई, सुंदरता, परोपकार, न्याय, सकारात्मकता और सार्थकता को परिलक्षित करता है. अपने भीतर देवता जैसे गुणों का विकास करना ही देवत्व की ओर चलना है और इसके लिए निरंतर अभ्यास करना होगा. क्रोध, घ्रणा, द्वेश, अहंकार, अभिमान जैसे दुर्गुणों को छोड़ना होगा. कहा जाता है कि इस व्रत को करने से मनुष्यों का उत्थान और मोक्ष की प्राप्ति होती है. गरुड़ पुराण के अनुसार इस व्रत को करने वाला व्यक्ति विष्णु लोक का अधिकारी हो जाता है, पद्म पुराण में भी लिखा है कि यह व्रत नाव के समान है ,जिस पर सवार होकर भवसागर को पार किया जा सकता है.  

शुरु हो जाएंगे मांगलिक कार्य

आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी या हरिशयनी एकादशी कहा जाता है. माना जाता है इस दिन से भगवान विष्णु चार मास के लिए योगनिद्रा में चले गए थे. उनके शयन करने के कारण ही इन चार महीनों में मांगलिक कार्य वर्जित रहते हैं किंतु देवोत्थान एकादशी के दिन श्री विष्णु हरि जागते हैं और इसके साथ ही बैंड बाजा शहनाई बजने लगती है. मांगलिक कार्य प्रारंभ हो जाते हैं.  

इस प्रकार पूजन कर प्रभु करें प्रसन्न

इस दिन व्रती स्त्रियां स्नान आदि से निवृत्त होकर आंगन में चौक पूज कर भगवान विष्णु के चरणों को कलात्मक रूप से अंकित करती हैं. दिन की तेज धूप में विष्णु जी के चरणों को ढक दिया जाता है. रात्रि को विधिवत पूजन के बाद प्रातः काल भगवान को शंख, घंटा घड़ियाल आदि बजाकर जगाया जाता है. 

देवउठनी एकादशी की कथा

प्राचीन काल में एक राजा के राज्य में सभी लोग एकादशी का व्रत रखते थे, यानी राजा से लेकर प्रजा तथा नौकर चाकर भी, यहां तक कि पशुओं तक को एकादशी के दिन अन्न नहीं दिया जाता था. एक दिन पड़ोसी राज्य का एक व्यक्ति आया और राजा से नौकरी मांगी. राजा ने नौकरी देते हुए एकादशी का नियम बताया. एकादशी के दिन उसकी जब फलों को खाने से तृप्ति नहीं हुई तो उसने राजा से अनुनय विनय कर आटा, दाल चावल आदि लिया और नदी किनारे स्नान कर भोजन बनाया और भगवान से ग्रहण करने का आग्रह किया. भगवान आए और उसके साथ भोजन कर चले गए. अगली एकादशी पर उस नौकर ने दोगुना राशन मांगते हुए कहा कि उसके साथ तो भगवान भी भोजन करते हैं. राजा को विश्वास नहीं हुआ तो उसने कहा आप छिप कर देख सकते हैं. उसने नदी किनारे भोजन बना कर भगवान को बुलाया किंतु इस बार वह नहीं आए. इस पर युवक नदी में कूद कर जान देने के लिए आगे बढ़ा. भगवान ने अपने भक्त की बात सुनी और उसके साथ आकर भोजन किया. उस दिन से राजा ने सोचा कि मन शुद्ध न हुआ तो व्रत उपवास सब व्यर्थ है. इसके बाद राजा शुद्ध मन से उपवास करने लगा.

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