शकुन्तला ने भरे दरबार में अपने पतिव्रत धर्म की दुहाई देते हुए कहा, पत्नी उसे कहते हैं जो घर के कामकाज में चतुर हो, पति को प्राण के समान मानने के साथ ही सच्ची पतिव्रत हो।
Shakuntala Appeal : हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत के दरबार में जब शकुन्तला को पुत्र सर्वदमन के साथ पहचानने से ही उन्होंने इनकार कर दिया तो उसने महर्षि कण्व के आश्रम की घटना की याद दिलाई जब उन्होंने वहां पर उसके साथ गंधर्व विवाह किया था। शकुन्तला ने कहा कि महर्षि कण्व ने ही आदेश दिया कि अब तुम्हारा पुत्र बड़ा हो गया है, इसलिए तुम्हें अपने पति के घर जाना चाहिए।
राजा दुष्यंत को पितृ धर्म की याद दिलायी
शकुन्तला ने भरे दरबार में अपने पतिव्रत धर्म की दुहाई देते हुए कहा, पत्नी उसे कहते हैं जो घर के कामकाज में चतुर हो, पति को प्राण के समान मानने के साथ ही सच्ची पतिव्रत हो, पत्नी पति का अर्धांग और श्रेष्ठतम सखा है। घोर विपत्ति के समय और मृत्यु पर भी पत्नी ही अपने पति का अनुगमन करती है। इस लोक और परलोक में पत्नी जैसा सहायक दूसरा कोई नहीं हो सकता है। बड़े-बड़े तपस्वी ऋषियों में भी ऐसी शक्ति नहीं कि बिना पत्नी के संतान उत्पन्न कर सकें। अपने धूल से सने पुत्र को गोद में उठाने से जो सुख प्राप्त होता है वह अन्य कहीं भी दुर्लभ है। आपका पुत्र स्वयं ही आपके सामने खड़ा होकर प्रेमभरी निगाहों से आपकी गोद में बैठने को आतुर है।
शकुन्तला ने राजा से की पुत्र अपनाने की गुहार
शकुन्तला ने आगे राजा दुष्यंत के पितृत्व को झकझोरते हुए कहा, चीटिंयां भी अपने अंडों का पालन करती हैं, उन्हें फोड़ती नहीं हैं। आखिर आप अपने ही बालक का लालन पोषण क्यों नहीं करते। पुत्र को हृदय से लगाने में जैसा सुख प्राप्त होता है वैसा मुलायम कपड़े, पत्नी अथवा जल के स्पर्श से भी नहीं होता है। अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए शकुन्तला बोली, हे राजन ! मैने आपके इस पुत्र को तीन वर्षों तक अपने गर्भ में धारण किया है। इसके जन्म के समय आकाशवाणी हुई थी, यह बालक सौ अश्वमेध यज्ञ करेगा। जातकर्म के समय वेदमंत्रों के पाठ के समय पिता पुत्र को अभिमंत्रित करते हुए कहता है, तुम मेरे सर्वांग से उत्पन्न हुए हो। तुम तो मेरा हृदय हो, मेरा अपना ही नाम है पुत्र। बेटा तुम सौ वर्षों तक जीओ। मेरा जीवन और आगे की वंश परम्परा अब तुम्हारे ऊपर है। मैं मेनका की कन्या हूं और अवश्य ही मैने पूर्व जन्म में कोई बुरे कर्म किए होंगे जो मेरी मां बचपन में ही मुझे छोड़ कर चली गयीं और अब आप छोड़ रहे हैं। यदि आप मुझे नहीं स्वीकार करना चाहते हैं तो मुझे छोड़ दीजिए मैं पुनः महर्षि कण्व के आश्रम में चली जाऊंगी लेकिन अपने पुत्र को तो स्वीकार कर लीजिए।