Shashishekhar Tripathi
शिव जी को प्रसन्न कर सभी मनोकामनाओं को पूरा करने वाला प्रदोष व्रत अत्यंत प्रभावशाली है. प्रदोष का अर्थ है संध्या काल या रात का प्रारंभिक समय. इसी वेला में इस व्रत का पूजन होने के कारण इसे प्रदोष व्रत के नाम से जाना जाता है. हर माह के दो पक्ष होते हैं, कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष. प्रत्येक पक्ष में त्रयोदशी तिथि को होने वाला यह व्रत भगवान शिव की कृपा प्राप्ति और सभी प्रकार की मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए किया जाता है. यह व्रत स्त्रियों और पुरुषों दोनों द्वारा किया जाता है.
कब से शुरू करें प्रदोष व्रत
त्रयोदशी तिथि हर महीने दो बार आती है और जिस दिन प्रदोष काल पड़ता है, उसे उस दिन के नाम से जोड़कर बोला जाता है. जैसे, सोमवार को प्रदोष पड़ने पर उसे सोम प्रदोष कहते हैं. मंगलवार को भौम प्रदोष और शनिवार को शनि प्रदोष कहा जाता है. पौराणिक मान्यता के अनुसार, प्रदोष के दिन भगवान शंकर कैलाश पर्वत पर अपने भवन में नृत्य करते हैं और सभी देवता उनकी स्तुति करते हैं. इसलिए इस दिन भगवान शंकर की पूजा करने से वह प्रसन्न होते हैं और भक्तों को मनवांछित फल प्रदान करते हैं.
किसी भी माह के कृष्ण पक्ष के शनिवार को पड़ने वाला शनि प्रदोष व्रत विशेष पुण्यदायी माना गया है. इस दिन से प्रदोष व्रत की शुरुआत की जा सकती है. इसी प्रकार, सोमवार को पड़ने वाले सोम प्रदोष से भी इस व्रत को प्रारंभ कर सकते हैं. सावन माह में यह व्रत करना विशेष फलदायी होता है.

प्रदोष व्रत की कथा
प्राचीन काल में एक गरीब ब्राह्मणी अपने पति की मृत्यु के बाद भीख मांगकर अपना जीवन यापन करने लगी. उसका एक पुत्र भी था, जिसे वह रोज सुबह अपने साथ लेकर निकलती और सूर्यास्त के समय लौट आती थी. एक दिन उसकी भेंट विदर्भ देश के राजकुमार से हुई, जो अपने पिता की मृत्यु और राज्य छिन जाने के कारण भटक रहा था. ब्राह्मणी को उस पर दया आ गई और वह उसे अपने घर ले आई. एक दिन ब्राह्मणी अपने पुत्र और राजकुमार के साथ शांडिल्य ऋषि के आश्रम गई और वहां भगवान शंकर की पूजन विधि जानकर लौट आई. इसके बाद वह नियमित रूप से प्रदोष व्रत करने लगी.
कुछ समय बाद दोनों बालक वन में घूमने गए. वहां उन्होंने कुछ कन्याओं को खेलते देखा. ब्राह्मण कुमार तो घर लौट आया, लेकिन राजकुमार एक गंधर्व कन्या अंशुमति से बातचीत करने लगा. अगले दिन राजकुमार फिर उस स्थान पर पहुंचा जहां अंशुमति अपने माता-पिता के साथ बैठी हुई थी. अंशुमति के पिता ने राजकुमार को पहचान लिया और कहा, “तुम विदर्भ नगर के राजकुमार धर्मगुप्त हो. भगवान शंकर की आज्ञा से हम अपनी पुत्री अंशुमति का विवाह तुम्हारे साथ करना चाहते हैं.” राजकुमार ने स्वीकृति दे दी और उनका विवाह हो गया.
इसके बाद राजकुमार ने गंधर्व राज विद्रविक की विशाल सेना लेकर विदर्भ पर चढ़ाई कर दी. घमासान युद्ध हुआ और राजकुमार विजयी हुए. उन्होंने अपनी पत्नी अंशुमति के साथ राज्य पर शासन करना शुरू किया और ब्राह्मणी को अपने साथ महल में रखा. इस प्रकार उनके सभी दुख समाप्त हो गए. एक दिन अंशुमति ने राजकुमार से पूछा कि यह सब कैसे हुआ. तब राजकुमार ने बताया कि यह सब प्रदोष व्रत के पुण्य का परिणाम है. तब से प्रदोष व्रत का महत्व और भी बढ़ गया.



