असुरराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ने दैत्यगुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी को गुस्से में एक सूखे कुएं में मरने के लिए धकेल दिया।
Displeasure of Devyani : असुरराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ने दैत्यगुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी को गुस्से में एक सूखे कुएं में मरने के लिए धकेल दिया किंतु कुछ देर बाद ही उधर से निकले राजा ययाति ने उसे कुएं से बाहर निकाल दिया। देवयानी विचार करने लगी कि अब उसे इतने अपमान के बाद नगर में नहीं जाना चाहिए। उसकी दासी ने नगर में गुरु घर पहुंच कर सारी बात बतायी।
देवयानी ने पिता से किए प्रश्न
बेटी के साथ दुर्व्यवाहर की जानकारी मिलते ही गुरु शुक्राचार्य नगर के बाहर पहुंचे और देवयानी को समझाया, बेटी सभी को अपने-अपने कर्मों का सुख-दुख भोगना पड़ता है। ऐसा लगता है कि तुमने कुछ अनुचित कार्य किया है जिसका यह प्रायश्चित हुआ। बेटी ने प्रश्न भरी निगाहों से पिता की और देखते हुए पूछा, शर्मिष्ठा के अनुसार आप भाट हैं, वृषपर्वा का गुणगान कर भीख और मेहनताना मांगते हैं। यदि यह बात सही है तो मैं अभी जाकर शर्मिष्ठा से क्षमा मांग लेती हूं।
शुक्राचार्य ने स्पष्ट की सारी स्थिति
शुक्राचार्य ने देवयानी की बात ध्यान से सुनने के बाद बहुत ही प्यार से समझाया, बेटी तो इतना तो निश्चित जान ले कि तू किसी भाट, गुणगान करने वाले और भीख मांगने वाले की बेटी नहीं है। तू उस पवित्र ब्राह्मण आचार्य की पुत्री है जो कभी किसी की स्तुति नहीं करता बल्कि लोग उसकी स्तुति करते हैं। ब्रह्मा जी ने मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर मुझे अधिकार दिया कि कर्म और गुणों के आधार पर ब्राह्मणत्व दिया है। उन्होंने कहा भूलोक और स्वर्ग में जो कुछ भी है, मैं उस सबका स्वामी हूं। मैं ही प्रजा के लिए जल की बारिश करता हूं और औषधीय पौधों का पोषण करता हूं। उन्होंने देवयानी से कहा, जो मनुष्य अपनी निन्दा सह लेता है, वही सारे जगत पर विजय प्राप्त कर सकता है। जो व्यक्ति उभरे हुए क्रोध को घोड़े के समान वश में कर लेता है वही सच्चा सारथि है न कि लगाम को पकड़ने वाला। एक व्यक्ति सौ वर्षों तक निरंतर यज्ञ करे और दूसरा व्यक्ति यदि क्रोध नहीं करता है तो क्रोध न करने वाला यज्ञ करने वाले से अधिक श्रेष्ठ होता है। मूर्ख तो वैर-विरोध करते ही हैं लेकिन समझदार व्यक्ति को ऐसा नहीं करना चाहिए।
छोटे विचार वालों संग रहना ठीक नहीं
अपने पिता की बात सुनने के बाद देवयानी बोली, मैं अभी बालिका ही हूं फिर भी धर्म और अधर्म का अंतर समझती हूं। अपना हित चाहने वाले गुरु को शिष्य की धृष्टता क्षमा नहीं करनी चाहिए इसलिए अब इन छोटे विचार वालों के साथ मैं नहीं रहना चाहती हूं। जो लोग किसी के सदाचार और कुलीनता की निंदा करते हैं उनके बीच में नहीं रहना चाहिए। इसलिए अब मैं तो इस स्थान पर नहीं रह सकती हूं।