Dharma : द्रोण ने कृपी से विवाह कर पुत्र को दिया जन्म, जानिए उसके नामकरण का रहस्य और मित्र राजा द्रुपद से मिलने पर क्या हुआ 

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द्रोणाचार्य पिता की मृत्यु के बाद पिता के आश्रम में ही रहकर तप करने लगे। उन्होंने धनुर्वेद के ज्ञाता शरद्वान की पुत्री कृपी से विवाह कर लिया।

Dharma : भरद्वाज मुनि के पुत्र द्रोणाचार्य पिता की मृत्यु के बाद पिता के आश्रम में ही रहकर तप करने लगे। उन्होंने धनुर्वेद के ज्ञाता शरद्वान की पुत्री कृपी से विवाह कर लिया। कृपी के गर्भ से पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम अश्वत्थामा रखा गया। दरअसल उसने जन्म लेते ही उच्चैश्रवा नाम के घोड़े के समान स्थाम अर्थात हिनहिनाने की आवाज निकाली थी। इसी कारण उसका नाम अश्वत्थामा रख दिया गया। अश्वत्थामा का जन्म होने से द्रोण बहुत ही प्रसन्न हुए। 

भगवान परशुराम के दान की मिली सूचना

इन्हीं दिनों की बात है कि आचार्य द्रोण को जानकारी मिली की जमदग्नि ऋषि के पुत्र भगवान परशुराम अपना सब कुछ ब्राह्मणों को दान दे रहे हैं, तो द्रोणाचार्य भी उनके पास पहुंचे। वे अपने शिष्यों के साथ महेन्द्र पर्वचर पर पहुंचे और परशुराम जी को प्रणाम कर बोले, मैं महर्षि अंगिरा के गोत्र में उत्पन्न भरद्वाज ऋषि के द्वारा बिना यौन संबंध बनाए ही पैदा हुआ हूं और आपसे कुछ प्राप्त करने आया हूं। उनकी बात सुनने के बाद भगवान परशुराम ने कहा, मैं धन रत्न आदि तो सब ब्राह्मणों को दान कर चुका हूं, सारी पृथ्वी कश्यप ऋषि को दे दी है। अब मेरे पास इस शरीर और अस्त्रों के सिवा कुछ भी नहीं है। इनमें से तुम जो चाहो मांग सकते हो।  

द्रोणाचार्य ने मांगे अस्त्र-शस्त्र और प्रयोग विधि

द्रोणाचार्य ने उनसे कहा, हे भृगुनन्दन ! आप मुझे प्रयोग, रहस्य और उपसंहार की विधि के साथ सारे अस्त्र-शस्त्र दे दें। परशुराम जी ने तत्काल ही उन्हें इनकी शिक्षा दी। अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर द्रोणाचार्य को बहुत ही प्रसन्नता हुई और इसके बाद वे अपने मित्र राजा द्रुपद के पास मिलने पहुंचे। द्रुपद के पास पहुंच कर उन्होंने कहा राजन ! आपने मुझे पहचान तो लिया ही होगा, मैं आपका मित्र हूं। इस पर क्रोधित होते हुए द्रुपद ने कहा, अपने को मेरा मित्र बताते हुए तुम्हें जरा भी संकोच नहीं हो रहा, लगता है तुम्हारी बुद्धि अभी पूरी तरह से विकसित नहीं हुई है। भला एक राजा की गरीब ब्राह्मण से कैसी दोस्ती। द्रुपद की बातें सुन द्रोण क्रोध से कांपने लगे और मन ही मन कुछ तय कर कुरुवंश की राजधानी हस्तिनापुर में पहुंच गए। उन्होंने यहां पर कुछ समय तक गुप्त रूप से कृपाचार्य के घर पर निवास किया। 

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