Dharm : हस्तिनापुर के धौम्य ऋषि जिनका पूरा नाम अयोदधौम्य था, के तीसरे प्रमुख शिष्य का नाम था वेद।
Dharm : हस्तिनापुर के धौम्य ऋषि जिनका पूरा नाम अयोदधौम्य था, के तीसरे प्रमुख शिष्य का नाम था वेद। ऋषि ने उसे अपने पास बुलाया और बोले, बेटा तुम कुछ दिनों तक मेरे घर पर रह कर सेवा सुश्रुषा करो, तुम्हारा कल्याण होगा। आचार्य जी उससे तरह की सेवाएं कराते, रोज उस पर बैल की तरह कार्य का बोझ लाद देते किंतु शिष्य बिना कुछ कहे सेवा करता रहा वह भी सर्दी-गर्मी भूख-प्यास सहते हुए। उसके सेवाओं से आचार्य प्रसन्न हुए और उसके हर तरह से कल्याण तथा सभी विषयों के ज्ञाता होने का आशीर्वाद दिया।
गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के साथ ही वेद बने पुरोहित
ब्रह्मचर्य आश्रम से लौट कर वेद ने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया और अरने आचार्य की भांति शिष्यों में ज्ञान प्रसार करने लगे। उनके तीन शिष्य थे। कुरुवंशीय राजा जनमेजय और राजा पौष्य ने आचार्य वेद को अपना पुरोहित स्वीकार किया था और कभी कभी वह उनके यहां यज्ञ आदि कराने जाते तो अपने शिष्य उत्तंक को घर की देखरेख की जिम्मेदारी दे जाते थे। एक दिन शिष्य को बुलाकर आचार्य वेद ने कहा, तुम्हारी शिक्षा पूरी हुई, मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूं, तुम्हारी सभी कामनाएं पूरी हों और अब आश्रम से जाओ। उत्तंक ने गुरु दक्षिणा के रूप में कुछ अर्पित करना चाहा तो गुरु ने मना कर दिया, उन्होंने कहा तुम अपनी गुरुआनी से पूछ सकते हो। गुरुआनी ने उतंक से राजा पौष्य की पत्नी के कानों के कुंडल की मांग की और कहा, मैं आज से चौथे दिन उन कुंडलों को पहन कर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहती हूं।
राजा जनमेजय ने क्यों कराया सर्पों का यज्ञ
राजा जनमेजय ने क्यों कराया सर्पों का यज्ञ
महाभारत के आदिपर्व की कथा के अनुसार जनमेजय राजा परीक्षित के पुत्र थे जिन्हें नागराज तक्षक ने डस कर मृत्युलोक पहुंचा दिया था। राजा परीक्षित अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र तथा महान धनुर्धर अर्जुन के पौत्र थे। महर्षि वेद शिष्य उत्तंक राजा पौष्य के पास पहुंचे और अपनी मांग रखी तो उन्होंने उत्तंक को अंतःपुर में भेज दिया। वहां रानी ने उनके आग्रह पर सहर्ष कुंडल दिए और साथ ही हिदायत भी दी की इन कुंडलों को नागराज तक्षक भी चाहता है इसलिए उससे सावधान रहना। उत्तंक कुंडल लेकर अपने गुरुकुल को चले तो उनके पीछे पीछे एक नग्न व्यक्ति भी चलने लगा। वह कभी दिखता तो कभी छिप जाता। एक बार उत्तंक ने कुंडल रख कर जल लेने का प्रयास किया तो वह उन कुंडलों को लेकर गायब हो गया। वह नागराज तक्षक ही था था जो वेश बदल कर उत्तंक का पीछा कर रहा था। उत्तंक ने इंद्र के वज्र की सहायता से नागलोक तक उसका पीछा किया तो भयभीत होकर कुंडल लौटा दिया। उत्तंक ने समय पर पहुंच कर गुरुआनी को कुंडल देकर आशीर्वाद प्राप्त किया। इधर सम्राट जनमेजय तक्षशिला पर विजय प्राप्त कर हस्तिनापुर लौट चुके थे। आचार्य की आज्ञा पाकर उत्तंक हस्तिनापुर पहुंचा और राजा जनमेजय से कहा, हे राजन! तक्षक ने आपके पिता को डसा था, इसलिए उससे बदला लेने के लिए आप यज्ञ कीजिए। सर्प यज्ञ की अग्नि में उस पापी को जलाकर भस्म कर अपने पिता की मृत्यु बदला लीजिए इससे मुझे भी प्रसन्नता होगी क्योंकि उसने मुझे भी कम कष्ट नहीं दिया है।
Amazing work.