Dharam : स्वर्ग में भोग कर रहे ययाति के पुण्य नष्ट होने पर वे कहां गिरे, किससे हुई भेंट फिर उन्होंने क्या किए प्रश्न

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ययाति स्वर्ग से उस स्थान पर गिरे जहां अष्टक, प्रतर्दन, वसुमान् और शिवि जैसे श्रेष्ठ तपस्वी तप साधना में लीन थे।

Dharam : तप के मामले में मनुष्य, देवता गंधर्व और महर्षियों से अपने को श्रेष्ठ बताने से राजा ययाति की तपस्या का पुण्य नष्ट हो गया और उन्हें स्वर्ग छोड़ने को विवश होना पड़ा। सदैव धर्म के मार्ग पर चलने वाले ययाति ने इंद्र से प्रार्थना की कि उन्हें पृथ्वी लोक में उस स्थान पर भेजिए जहां संतों का वास हो। ययाति स्वर्ग से उस स्थान पर गिरे जहां अष्टक, प्रतर्दन, वसुमान् और शिवि जैसे श्रेष्ठ तपस्वी तप साधना में लीन थे। 

स्वर्ग से ययाति अष्टक ऋषि के सामने गिरे

ययाति को गिरता देख अष्टक ऋषि ने कहा, युवक तुम्हारा रूप तो इंद्र के समान है लेकिन तुम्हें गिरते हुए देख कर हम चकित हो रहे हैं। उन्होंने कहा तुम जहां तक आ गए हो वहीं ठहर जाओ और अपनी पूरी कथा बताओ। दीन दुखियों के लिए संत ही परम आश्रय होते हैं। इंद्र तुम्हारा बाल बांका भी नहीं कर सकेगा। ययाति ने अपना परिचय देने के साथ ही आप बीती बताते हुए कहा प्राणियों का तिरस्कार और स्व अभिमान करने के कारण ही मेरे नरक का मूल कारण है। उन्होंने कहा धन पाकर फूलना, विद्वान होकर अहंकार, विचार और प्रयास की अपेक्षा देव की गति बलवान जान कर कष्ट नहीं महसूस करना चाहिए। मैं विधाता के विधान के विपरीत नहीं जा सकता, ऐसा विचार कर मैं संतुष्ट रहता हूं। सुख-दुख सब अस्थायी हैं इसलिए दुख हो तो कैसे और सुखी होकर क्या करूं। इसीलिए दुख मेरे पास तक नहीं फटकते हैं। 

अष्टक ऋषि ने ययाति से किए प्रश्न

अब ऋषि अष्टक का प्रश्न था, आप तो आत्मज्ञानी नारद मुनि के समान बोल रहे हैं इसलिए बताएं आप किस किस लोक में रह चुके हैं। उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए ययाति बोले, मैं पहले पृथ्वी लोक में सार्वभौम राजा था। इसके बाद एक हजार वर्षों तक महत लोक, उसके बाद इतने ही समय तक इंद्रपुरी और प्रजापति के लोक में भी रहा। नंदनवन में तो लाखों वर्षों तक स्वर्गीय भोगों को भोगते हुए निवास किया। वहां में सुखों में आसक्त हो गया जिससे पुण्य क्षीण हो गए और फिर पृथ्वी लोक पर आ गया हूं। इतना सुनकर अष्टक ऋषि की जिज्ञासा बढ़ी और अगला प्रश्न पूछा कि किन कर्मों व अनुष्ठानों से मनुष्य को श्रेष्ठ लोकों की प्राप्ति होती है। वे तप से मिलते हैं या ज्ञान से। 

ययाति ने स्वर्ग के द्वार और अभय के साधन बताए

ययाति ने स्पष्ट करते हुए उनसे कहा, स्वर्ग पहुंचने के सात द्वार दान, तप, शम, दम, लज्जा, सरलता और प्राणिमात्र पर दया हैं। हे ऋषिवर ! अभिमान से तपस्या कमजोर हो जाती है, जो लोग अपनी विद्वता के अभिमान में फूले फिरते हैं और दूसरों का यश मिटाना चाहते हैं उन्हें उत्तम लोकों की प्राप्ति नहीं होती है। उनकी विद्या भी मोक्षदान में असमर्थ रहती है। अभय के चार साधन अग्निहोत्र, मौन, वेदाध्ययन और यज्ञ हैं। यदि गलत तरीके से अहंकार के साथ इनका अनुष्ठान होता है तो ये भय के कारण बन जाते हैं। सम्मानित होने पर सुख नहीं मानना चाहिए और अपमानित होने पर दुख। मैं दान करूंगा, मैं यज्ञ करूंगा मैं जान ले लूंगा यह मेरी प्रतिज्ञा है जैसी बातें अनुचित हैं, इनका त्याग ही सर्वथा उचित है।    

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