स्वर्ग में रहते हुए उन्होंने हजारों वर्ष बिता दिए जहां इंद्र, साध्य, मरुत, वसु आदि सभी उनका सम्मान करते थे।
Dharam : राजा ययाति ने पुत्र से उसकी जवानी उधार मांगी और एक हजार वर्षों तक सुखपूर्वक जीवन जीने के बाद वानप्रस्थ आश्रम में चले गए। यहां पर उन्होंने तपस्वी का जीवन जीते हुए छह महीनों तक एक पैरों पर खड़े होकर केवल हवा का ही सेवन किया। शरीर त्यागने के बाद उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हुई।
स्वर्ग में सभी करते थे, ययाति का सम्मान
स्वर्ग में रहते हुए उन्होंने हजारों वर्ष बिता दिए जहां इंद्र, साध्य, मरुत, वसु आदि सभी उनका सम्मान करते थे। एक दिन ययाति स्वर्ग में घूमते हुए इंद्र के पास पहुंचे और बातचीत करने लगे। इंद्र ने पूछा, राजन ! जिस समय आपने अपने पुत्र की जवानी लौटा कर उससे बुढ़ापा वापस लेने के साथ ही राज्याभिषेक भी कर दिया, उस मौके पर आपने उसे क्या उपदेश दिया। उत्तर देते हुए ययाति ने कहा, देवराज ! मैने अपने पुत्र पुरो से कहा कि मैं तुम्हें गंगा और यमुना के बीच का क्षेत्र राज्य करने के लिए देता हूं। सीमांत के क्षेत्रों का भोग तुम्हारे अन्य भाई करेंगे। उन्होंने पुत्र से कहा, क्रोधियों से क्षमाशील श्रेष्ठ हैं और असहिष्णु से सहिष्णु, मनुष्येतर से मनुष्य और मूर्खों से विद्वान सदैव श्रेष्ठ रहते हैं। मुख से कड़वी तीखी बात नहीं निकालनी चाहिए। सदाचार पर चलते हुए सदैव सत्पुरुषों के व्यवहार को अपनाना चाहिए।
किस तरह खत्म हुए ययाति के पुण्य
ययाति की बातें सुनकर इंद्र ने कहा आपने गृहस्थाश्रम का पालन करने के बाद वानप्रस्थ स्वीकार किया और कठिन तपस्या भी की। तपस्या के मामले में आप अपने को किसके समकक्ष समझते हैं। इस पर उन्होंने सहजता से उत्तर दिया, मनुष्य, देवता और महर्षियों में मुझे अपने समान कोई तपस्वी नहीं पड़ता है। इतना सुनते ही इंद्र आवाक रह गए, उन्होंने कहा तुमने तो छोटे बड़े सभी लोगों का प्रभाव जाने बिना एक तो सबका तिरस्कार कर दिया, दूसरी ओर अपने ही मुख से अपनी प्रशंसा कर रहे हो जिससे तुम्हारे सारे पुण्य क्षीण हो गए। यहां के सुख भोगने की एक सीमा है इसलिए तुम पृथ्वी पर पुनः वापस जाओ। इस पर ययाति ने इंद्र से विनती करते हुए कहा, ठीक है, यदि सबका अपमान करने से मेरे पुण्य क्षीण हो गए हैं तो फिर मैं पृथ्वी पर ऐसे स्थान पर गिरूं जहां संतों का वास हो। इंद्र ने कहा ऐसा ही होगा।