हस्तिनापुर सम्राट महाराजा शांतनु निषाद राज की पुत्री पर मोहित हुए और विवाह का प्रस्ताव रखा तो निषाद राज ने उनके सामने शर्त रख दी ।
Bhishma Pratigya : हस्तिनापुर सम्राट महाराजा शांतनु निषाद राज की पुत्री पर मोहित हुए और विवाह का प्रस्ताव रखा तो निषाद राज ने उनके सामने शर्त रख दी कि इससे उत्पन्न पुत्र ही हस्तिनापुर राज्य का अधिकारी होगा। राजा जितना काम वासना से ग्रस्त थे उतना ही गंगादेवी से उत्पन्न पुत्र देवव्रत से प्रेम करते थे इसीलिए बिना उनकी शर्त माने महल को लौट आए। लौटने के बाद उनका मन राजकाज में नहीं लगता था और हर समय चिंतित दिखने लगे।
देवव्रत ने पिता से पूछा चिंता का कारण
अपने पिता की चिंता देवव्रत से नहीं देखी जाती इसीलिए उसने पास आकर पूछा, पिताजी ! पृथ्वी पर सभी राजा आपके अधीन हैं और कहीं से किसी तरह के परेशानी भी नहीं दिखती फिर आप किस बात को लेकर चिंतित हैं। आप न तो मुझसे मिलते हैं न ही शिकार के लिए निकलते हैं, आपका शरीर भी पीला पड़ता जा रहा है। अपनी समस्या बताएं ताकि उसका निराकरण किया जा सके। पुत्र की बात सुनकर राजा शांतनु की कुछ कहने की हिम्मत लौटी और वे बोले, बेटा ! हमारे इस महान कुल में एकमात्र तुम ही मेरे वंशधर हो और इसीलिए तुम हमेशा शस्त्रों के साथ वीरता के कार्य भी करते रहते हो। भगवान न करे यदि तुम पर कोई विपत्ति आ गयी तो हमारे इस वंश का ही नाश हो जाएगा। उन्होंने स्पष्ट किया कि तुम तो अकेले ही युद्ध कौशल में निपुण हो और तुम सैकड़ों पुत्र में श्रेष्ठ हो इसलिए मैं तो व्यर्थ में बहुत से विवाह भी नहीं करना चाहता हूं लेकिन वंश परम्परा को निभाने की चिंता तो है ही।
देवव्रत ने मन ही मन लिया निर्णय
हालांकि राजा शांतनु ने इससे अधिक कुछ नहीं कहा किंतु देवव्रत ने वार्तालाप के दौरान ही सब कुछ सोच विचार कर लिया और वृद्ध मंत्री से मिल कर पिता की चिंता का सही कारण और निषादराज की शर्त की जानकारी कर ली। देवव्रत ने राज्य के बड़े बूढ़े मंत्रियों को साथ में लिया निषादराज के घर तक यात्रा कर अपने पिता के लिए उनकी कन्या का हाथ मांगा। निषादराज ने जवाब दिया, यह कन्या वास्तव में एक श्रेष्ठ राजा की पुत्री है और आप लोगों के स्तर की है। उन्होंने मेरे पास बार-बार संदेश भेजा है कि तुम मेरी कन्या का विवाह राजा शांतनु से करना। कन्या का पालन पोषण करने के कारण मैं भी इसका पिता ही हूं।
निषादराज ने जाहिर किया अपना शक
निषादराज ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा, हे युवराज ! इस विवाह संबंध में एक दोष है। सत्यवती के पुत्र का शत्रु बहुत ही प्रबल होगा जिसके आप भी शत्रु हो जाएंगे, फिर वह चाहे गंधर्व हो या असुर, जीवित नहीं रह सकता। बस इसी बात का विचार कर मैंने अपनी कन्या आपके पिता को नहीं दी। इस बात को सुनकर गंगानंदन देवव्रत ने पिता का मनोरथ पूरा करने के लिए उसी स्थान पर प्रतिज्ञा की, हे निषादराज ! मैं शपथ पूर्वक प्रतिज्ञा करता हूं कि इसके गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा, वही हमारा राजा होगा। मेरी यह कठोर प्रतिज्ञा अभूतपूर्व है और आगे संसार में शायद ही कोई ऐसी प्रतिज्ञा करे। उनकी प्रतिज्ञा सुनकर निषादराज ने कहा मुझे आपकी प्रतिज्ञा में कोई संदेह नहीं है लेकिन यह तो हो ही सकता है कि आपका पुत्र सत्यवती के पुत्र से राज्य छीन ले।
निषादराज की शंका पर देवव्रत की प्रतिज्ञा
निषादराज की शंका सुन कर देवव्रत ने क्षत्रियों की सभा में शपथपूर्वक कहा, क्षत्रियों ! मैं अपने पिता के लिए राज्य का परित्याग तो पहले ही कर दिया है, निषादराज ने जो शंका व्यक्त की है उसकी दृष्टि से मैं कहता हूं कि आज से मेरा अखंड ब्रह्मचर्य रहेगा और संतान न होने पर मुझे अक्षय लोकों की प्राप्ति होगी। देवव्रत की प्रतिज्ञा सुनकर सबके सामने ही निषादराज ने अपनी कन्या राजा शांतनु को देने का वचन दिया। इतना सुनते ही आकाश से देवता, ऋषि और अप्सराएं देवव्रत पर पुष्प वर्षा करने लगे। सबने कहा, यह भीष्म है अर्थात भयानक प्रतिज्ञा करने वाला। आज से इनको इसी नाम से जाना जाएगा। इसके बाद भीष्म सत्यवती को रथ में बैठाकर महल ले आए और पिता को सौंप दिया। हर तरफ देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा की चर्चा होने लगी।