शाप से दुखी राजा पाण्डु ने संन्यास लेने का निर्णय सुनाया तो उनकी पत्नियां कुंती और माद्री भी चलने को तैयार हो गयीं।
Vanaprastha of Pandu : शिकार खेलने के दौरान हस्तिनापुर सम्राट महाराज पाण्डु ने सहवास करते एक हिरन और हिरनी को बाणों से घायल किया तो हिरन जो वास्तव में किंदम मुनि थे, ने उन्हें शाप दे दिया कि उनकी मृत्यु पत्नी से सहवास करते समय ही होगी। इस शाप से दुखी राजा पाण्डु ने संन्यास लेने का निर्णय सुनाया तो उनकी पत्नियां कुंती और माद्री भी चलने को तैयार हो गयीं।
दोनों रानियों को साथ ले चलने को राजी हुए पाण्डु
दोनों रानियों ने जब कहा कि वे अपनी इंद्रियों को वश में कर कामजन्य सुख को तिलांजलि देकर स्वर्ग में भी आपको प्राप्त करने के लिए आपके साथ ही तपस्या करेंगी। यदि आप छोड़ कर चले गए, तो हम दोनों अपने प्राण त्याग देंगे। दोनों पत्नियों के दृढ़ निश्चय की बात सुन राजा बोले, तुम दोनों ने यदि ऐसा करने का विचार किया है तो मैं संन्यास न लेकर वानप्रस्थ में ही रहूंगा। कंद मूल फल खाकर और पेड़ों की छाल से बने वस्त्र पहनकर घने जंगल में तप करूंगा। दोनों समय स्नान संध्या और यज्ञ करने के साथ ही मृगचर्म और जटा धारण करूंगा। एकांत में रहकर बस परमात्मा का ही ध्यान करूंगा।
वानप्रस्थ का समाचार सुन धृतराष्ट्र हुए दुखी
वानप्रस्थ का विचार आते ही पाण्डु ने चूड़ामणि, हार बाजूबंद, कुंडल और बहुमूल्य कपड़े उतार दिए, तो महिलाओं ने भी अपने गहने उतार कर ब्राह्मणों को दान में दे दिया। राजा बोले, हे ब्राह्मणों ! आप लोग हस्तिनापुर में जाकर कह दें कि पाण्डु अर्थ काम और विषय सुख को छोड़कर अपनी पत्नियों के साथ वनवासी हो गए। उनके सेवक असहाय से हो गए किंतु आज्ञा मान कर बहुत सारा धन और जेवरात आदि लेकर हस्तिनापुर पहुंचे। यहां पहुंच कर उन्होंने पाण्डु की अनुपस्थिति में राजकाज देखने वाले उनके भाई धृतराष्ट्र को सारी बात बताई। अपने भाई का समाचार सुन कर उन्हें भी दुख हुआ और खाने-पीने, उठने-बैठने में उनकी कोई रुचि न रही।
तपस्या में लीन हुए पाण्डु
अब पाण्डु अपनी पत्नियों के साथ वनगमन करते हुए एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर पहुंचते और कुछ दिन वहां रुक तप करने के बाद आगे चल पड़ते। ऐसा करते हुए वे गंधमादन पर्वत पर पहुंचे। यहां भी वे कई बार कंद मूल फल खाकर ही रह जाते। ऊंची नीची जमीन पर सो जाते, जंगल में तप कर रहे ऋषि मुनि और सिद्धजन उनका ख्याल रखते। पाण्डु भी इंद्रियों को वश में रखते और कभी घमंड नहीं करते। ऋषि गणों में कोई उन्हें मित्र तो कोई उन्हें पुत्र मान कर आदर स्नेह देता। इस तरह पाण्डु की तपस्या परवान चढ़ने लगी।