पिता के घर बिना बुलाए जाने की जिद करने पर, भगवान शंकर ने सती को क्यों मना किया

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भगवान शंकर के समाधिस्थ हो जाने से सती जी बहुत दुखी हो गयीं. गोस्वामी तुलसीदास राम चरित मानस के बालकांड में लिखते हैं कि उनका दुख इतना गहरा था कि उसे शब्दों में नहीं लिखा जा सकता है. 87 हजार साल बीतने के बाद शिव जी ने समाधि तोड़ कर आंख खोली. जगत के स्वामी के जागते ही सती ने उनके चरणों में सिर नवाकर प्रणाम किया तो शिव जी ने उन्हें बैठने के लिए अपने सामने ही आसन दिया. इसके बाद वह सती जी को भगवान के सुंदर प्रसंगों की कथा सुनाने लगे. 

दक्ष ने जानबूझ कर अपनी बेटी और दामाद को नहीं बुलाया

इसी समय की बात है कि ब्रह्मा जी ने दक्ष प्रजापति को हर तरह से योग्य पाते हुए प्रजापतियो का नायक बना दिया. इतना बड़ा अधिकार मिलने पर दक्ष प्रजापति भी दंभ से ग्रस्त हो गए. दक्ष ने इस उपलब्धि पर मुनियों को बुला कर एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया जिसमें यज्ञ का भाग पाने वाले सभी देवताओं को आदर सम्मान के साथ आमंत्रित किया. यज्ञ में शामिल होने के लिए निमंत्रण पाकर किन्नर, नाग, सिद्ध, गंधर्वों के अलावा सभी देवता अपने-अपने विमान सजा कर चल पड़े. इस यज्ञ में विष्णु जी, ब्रह्मा जी और महादेव नहीं शामिल हुए. आकाश मार्ग एक-एक कर देवताओं के विमानों को सती जी ने भी देखा और कौतूहल से शिव जी को निहारते हुए देवताओं का विमानों से जाने का कारण पूछा. शिव जी ने उनकी जिज्ञासा शांत करने के लिए पूरी जानकारी दी. 

पिता के घर जाने को, व्याकुल हो गयी सती

पिता के घर में यज्ञ की बात सुनते ही सती का मन वहां जाने को व्याकुल हो गया. वह सोचने लगीं कि यदि महादेव उन्हें आज्ञा दें, तो यज्ञ में शामिल होने के बहाने कुछ दिन पिता के घर जाकर रह लूं. पति द्वारा त्यागे जाने के कारण उनका मन बहुत दुखी था और इसी कारण मन के भाव नहीं व्यक्त कर पाईं. फिर संकोच छोड़ कर बोलीं, हे प्रभो मेरे पिता के घर में बड़ा उत्सव हो रहा है, आपकी आज्ञा हो तो मैं भी उसे देखने जाऊं. 

शिव जी ने सती को दी सीख

सती का बात सुन कर शिव जी मुस्कुरा कर बोले, सती तुम्हारी बात मेरे मन को भी अच्छी लगी है लेकिन उन्होंने न्योता न भेज कर गलत किया है जबकि दक्ष ने अपनी सभी पुत्रियों को बुलाया है किंतु वह तो मुझसे वैर मानते हैं इसलिए तुम्हें भी नहीं बुलाया. वैर का कारण स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया कि एक बार ब्रह्मा जी की सभा में वे हमसे रूठ गए थे और इसी कारण वे हमारा अपमान करते हैं. हे भवानी, यदि तुम पिता के घर बिना बुलाए जाओगी तो मान मर्यादा या प्यार कुछ भी नहीं रहेगा. तुलसीदास जी लिखते हैं कि इसमें कोई संदेह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए ही जाना चाहिए किंतु यदि कोई विरोध मानता, हो तो उसके घर जाने में कल्याण नहीं है. 

कथा का मर्म

उपलब्धियां मिलने पर व्यक्ति को कभी भी दंभ नहीं करना चाहिए बल्कि और भी विनम्र होना चाहिए. दंभ भरना कदापि उचित नहीं होता है. इसके साथ ही यदि कोई मित्र, मालिक, पिता और गुरु किसी कारण से विरोध मानते हैं तो उनके घर कभी भी नहीं जाना चाहिए अन्यथा इन चार लोगों के घर जाने में कोई बुराई नहीं है.

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