Vastu: वास्तु शास्त्र में भूमि के आकार, प्रकार और ऊंचाई-नीचाई का विशेष महत्व होता है, जिसका उल्लेख प्राचीन धर्म और वास्तु ग्रंथों में मिलता है। रामायण से लेकर वैदिक परंपराओं तक, वास्तु सिद्धांतों की पुष्टि वैज्ञानिक, धार्मिक और व्यवहारिक दृष्टिकोण से होती है। वास्तु पुरुष की परिकल्पना, जिसमें भूखंड के विभिन्न हिस्सों को पंच महाभूतों से जोड़ा गया है, इस शास्त्र की गहराई को दर्शाती है। इन तत्वों, जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के आपसी संबंध और उनके प्रभाव को समझना भवन निर्माण के लिए आवश्यक है, क्योंकि ये तत्व प्राकृतिक ऊर्जा को संतुलित करते हैं।
भूमि का आकार और प्रकार
वास्तु में भूमि का आकार और प्रकार, चिकनाई और ऊंचाई का महत्वपूर्ण स्थान है। वास्तु ग्रंथों के अतिरिक्त लगभग सभी धर्म ग्रंथों में वास्तु के बहुमूल्य सिद्धांत बिखरे पड़े हैं। इससे एक तो प्राचीन वास्तु शास्त्र की प्रामाणिकता सिद्ध होती है, और दूसरे इससे धार्मिक, व्यवहारिक तथा वैज्ञानिक महत्व की पुष्टि भी होती है। इसीलिए पुरातन भारत में धर्म, दर्शन और ज्योतिष इन तीनों शास्त्रों का अध्ययन एवं अध्यापन किया जाता है।
रामायण में वास्तु संबंधी सूत्र
वाल्मीकि रामायण में भगवान राम के मुख से वास्तु संबंधी अत्यंत महत्वपूर्ण सूत्र कहलाए गए हैं। किष्किंधा कांड में, बालि वध के उपरांत सुग्रीव के राज्यभिषेक के समय, वे प्रबरषण गिरि पर गए, जहाँ वे निवास के लिए अनुकूल स्थान की खोज कर रहे थे। गिरि की सुंदरता का वर्णन करते हुए, एक स्थान पर रुक कर वे अपने अनुज लक्ष्मण से कहते हैं: “लक्ष्मण, यह स्थान देखो, इस स्थान का ईशान नीचा तथा दक्षिण पश्चिम ऊंचा है। यहीं पर पर्णकुटी बनाना श्रेष्ठ है। यह स्थान सिद्धिदायक तथा विजय दिलाने वाला है।” निस्संदेह, धर्म ग्रंथों की बातें गूढ़ होती हैं, लेकिन अगर वास्तु की दृष्टि से देखें, तो हर ग्रंथ में ऐसी भूमि की प्रशंसा मिलेगी जिसका नैऋत्य ऊंचा तथा ईशान कोण नीचा हो।
प्रकृति की शक्तियों का प्रभाव
आखिर ऐसा क्यों? आइए, इसके कारण पर विचार करते हैं। प्रकृति की शक्तियाँ अनंत हैं। इन्हीं शक्तियों के द्वारा सृष्टि का निर्माण, उसका विकास, ह्रास तथा लय की सतत प्रक्रिया का संचालन होता है। इन शक्तियों में पंच महाभूत शामिल हैं: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। इनके अपने अलग-अलग गुणधर्म हैं। इनमें सबसे अधिक स्थूल तत्व है पृथ्वी। वास्तु में सबसे अधिक उपयोग इसी तत्व का होता है। जैसे हम अपने शरीर को देखें, तो सबसे अधिक पृथ्वी तत्व ही है। इसी प्रकार, किसी भवन में भी पृथ्वी तत्व का सर्वाधिक उपयोग होता है। कहने का तात्पर्य है कि अनुपात में पृथ्वी तत्व का प्रयोग अधिक मात्रा में होना वास्तु की अनिवार्यता है।
वास्तु पुरुष की परिकल्पना
शायद आप जानते हों कि हमारे ऋषियों ने भूखंड में एक वास्तु रूप के पुरुष की परिकल्पना की है, जिसका सिर ईशान कोण की ओर तथा पैर नैऋत्य कोण की ओर है। अब तनिक विचार करें कि नैऋत्य की ओर पैर होने का क्या अर्थ है? पहली बात तो यह है कि नैऋत्य कोण में पृथ्वी पर चलते हैं या पृथ्वी के संपर्क में रहते हैं, उसी प्रकार हमारे वास्तु पुरुष के पैर भी पृथ्वी की ओर ही माने गए हैं। जिस तरह मनुष्य का शरीर उसके पैरों पर ही खड़ा होता है, वही उसका आधार है। उसी प्रकार वास्तु में भी नैऋत्य कोण ही किसी भूखंड का आधार है।
ग्रहों का प्रभाव
ग्रहों में इस स्थान का स्वामी राहु है, तथा वास्तुपद विन्यास के अनुसार नैऋत्य में बाहरी ओर से सुग्रीव, दौवारिक, पितृगण, पूतना, भृंगराज तथा भीतर की ओर इंद्र व जय नाम के देवताओं का वास है। ये सभी देवता जीवन के अनेक आयामों का प्रतिनिधित्व करते हैं। आप इसे ऐसे समझें कि ये वैदिक देवता जिस गुणधर्म के हैं, जहाँ पर इनका वास है, भवन में प्राकृतिक रूप से उसी प्रकार का ऊर्जा क्षेत्र विद्यमान रहता है। इन देवताओं की प्रकृति के अनुरूप वातावरण देना ही वास्तु का लक्ष्य है।
तत्वों का आपसी संबंध
बहुत सूक्ष्म में न जाकर, यदि केवल तत्वों पर ही विचार करें, तो सभी तत्व एक-दूसरे के आध्यात्मिक स्तर पर पूरक होते हुए भी भौतिक रूप से भयंकर शत्रु भी हैं। जैसे पृथ्वी तत्व का अगर प्रबल विरोधी ढूंढ़ना है, तो यह निश्चित है कि आग पृथ्वी को आसानी से जला नहीं सकती, वायु उसे सुखा नहीं सकती। अगर कोई तत्व पृथ्वी का नुकसान कर सकने की क्षमता रखता है, तो वह है जल तत्व। जल तत्व पर पृथ्वी का कोई बस नहीं चलता। पृथ्वी जल में पड़ जाए, तो हार जाती है, अपना अस्तित्व खो देती है। दरअसल, जल तत्व का भोजन ही पृथ्वी है क्योंकि पृथ्वी तत्व सबसे स्थूल तत्व है।
आप मिट्टी के एक ढेले को एक गिलास पानी में डालें, कुछ देर में वह ढेला गायब हो जाएगा और पानी मटमैला हो जाएगा। अब आगे देखें, वायु तत्व जल तत्व से सूक्ष्म तत्व है, इसलिए यह जल को खा जाता है। आप जानते हैं कि जल को यदि ऊष्मा मिले, तो वह भाप बन जाती है, यानी वायु से ज्यादा सूक्ष्म तत्व है अग्नि। जहां भी अग्नि जलती है, वह बिना वायु के भक्षण किए जल ही नहीं सकती। इसके बाद सबसे सूक्ष्म आकाश है, जिसकी वजह से सारे तत्वों का होना संभव होता है। इन सब तत्वों को यहाँ इसलिए समझाया गया है ताकि आप इनके आपसी संबंध को भली-भांति समझ सकें।