महाभारत सहित वेद पुराणों की रचना तो वेदव्यास जी ने की थी, जिन्हें कृष्ण द्वैपायन भी कहा जाता है. उनके प्रमुख शिष्यों में रोमहर्षण हैं जिन्हें सब सूत जी के नाम से जानते हैं. सूत जी ने वेदव्यास जी द्वारा रचित 18 महापुराणों को याद कर लिया, तो उन्होंने प्रसन्न होकर इस ज्ञान के प्रचार-प्रसार की आज्ञा दी. ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर सूत जी ने और भी अलौकिक ज्ञान प्राप्त कर प्रचार-प्रसार का साधन पूछा. इस पर ब्रह्मदेव ने उन्हें एक चक्र देते हुए कहा कि इसे चलाओ और जहां पर चक्र रुके वहीं आश्रम स्थापित कर ज्ञान का प्रसार करो.
सूत जी ने चक्र चलाया तो वह नैमिषारण्य नामक स्थान पर रुका जो 88 हजार तपस्वियों का स्थल था. उनसे पुराणों को सुनने वाले शौनक ऋषि भृगुवंशी शुनक ऋषि के पुत्र और वेदव्यास जी के ही शिष्य थे. इन्होंने ही सूत जी से लोगों का कल्याण करने और मन को पवित्र करने वाला साधन पूछा जिससे भगवान श्री कृष्ण की प्राप्ति हो सके. उन्होंने बताया कि व्यास जी के पुत्र शुकदेव जी अपने पिता से महाभारत पढ़ी और फिर उसे देवताओं को भी सुनाया. इन्हीं ने वीर धनुर्धारी अर्जुन के पौत्र और अभिमन्यु के पुत्र राजा परीक्षित को श्री मद्भागवत की कथा सुनायी थी.
देवताओं के कथा सुनने का अधिकार नहीं रहा
राजा परीक्षित को शुकदेव जी द्वारा कथा सुनाने का एक मजेदार किस्सा है. राजा की सभा में जब वे कथा सुनाने पहुंचे तो वहां पर देवता गण भी अमृत कलश लेकर उपस्थित हुए. अपना काम बनाने के लिए देवताओं ने शुकदेव जी को प्रणाम कर कहा कि यह अमृत कलश आप रख लें और इसके बदले में कथा के अमृत का पान हम लोगों को भी करने दें. उनका प्रस्ताव था कि इस तरह की अदला बदली में राजा परीक्षित को अमृत पान का सुख प्राप्त हो जाएगा और आप हम लोगों को कथा दान कर दीजिए. देवताओं के इस प्रस्ताव को शुकदेव जी ने हंसी में उड़ा दिया. उन्होंने देवताओं को भक्ति शून्य कर दिया जिससे वे कथा के सुनने के अधिकारी ही नहीं रहे तो भी कथामृत कैसे पाते . इस तरह श्री मद्भागवत की कथा देवताओं के लिए भी दुर्लभ हो गयी.
कथा को पढ़ने, सुनने व सुनाने से मिलती श्री कृष्ण की कृपा
श्री मद्भागवत कथा को पढ़ने, सुनने या सुनाने से भगवान श्री कृष्ण की भक्ति और कृपा की प्राप्ति होती है. राजा परीक्षित ने शुकदेव जी से इस कथा को सुना तो उन्हें मृत्यु का भय समाप्त हो गया. सूत जी स्वयं कहते हैं कि उन्होंने यह दुर्लभ कथा अनन्य शिष्य होने के नाते ही शुकदेव महाराज से प्राप्त की थी.