Sons of Devyani & Sharmishtha : शुक्राचार्य की अनुमति मिलते ही पांडवों के पूर्वज नहुष पुत्र राजा ययाति और देवयानी का विवाह हो गया। राजा उन्हें अपनी राजधानी ले आया और देवयानी को अंतःपुर तथा शर्मिष्ठा और अन्य दासियों को पास ही अशोक वाटिका में रहने का स्थान दिया और उनके जीवन यापन की सभी सुविधाएं भी मुहैया करायी गयी।
सुकुमारों को देख देवयानी हुई आश्चचर्यचकित
महाभारत के आदिपर्व के अनुसार ययाति और देवयानी ने कई वर्षों तक राजोचित भोग किया। इस बीच देवयानी से उनके दो पुत्र हुए यदु और तुर्वसु हुए। एक बार राजा ययाति अशोक वाटिका के पास से गुजरे और शर्मिष्ठा को देख कर ठिठक गए। एकान्त पा कर शर्मिष्ठा उनके निकट आई और उनकी प्रशंसा करते हुए सहवास का निवेदन किया। उन्होंने उसकी प्रार्थना को स्वीकार किया और परिणाम स्वरूप उससे तीन पुत्र द्रुह्यु, अनु और पुरु हुए। ऐसे ही एक अवसर पर देवयानी राजा ययाति के साथ अपने राज्य में विहार करते हुए अशोक वाटिका की तरफ गयी उसने देखा देवताओं के जैसे दिखने वाले तीन सुकुमार वहां आपस में खेल रहे हैं। तीनों की सुंदरता देख कर वह आश्चर्यचकित रह गयी और राजा की ओर देखते हुए पूछा, ये सुकुमार कौन हैं जो आपके जैसे दिख रहे हैं। देवयानी का कौतुहल बढ़ा तो उसने उन बच्चों से सीधे ही पूछ लिया कि तुम्हारे माता पिता कौन हैं। बच्चों ने राजा की ओर इशारा करते हुए कहा कि मेरी मां का नाम शर्मिष्ठा है।
राजा ने समागम कर शर्मिष्ठा से तीन पुत्रों को दिया जन्म
इतना कहते हुए बच्चे दौड़ते हुए राजा के पास पहुंचे किंतु देवयानी के साथ होने के कारण राजा गोद में न ले सके। बच्चे इस बात से उदास हो गए और रोते-रोते अपनी मां शर्मिष्ठा के पास चले गए। राजा भी भेद खुलने के डर से लज्जित महसूस कर रहे थे। सारी स्थिति समझने में देवयानी को अधिक देर नहीं लगी। इसके बाद तेज कदम चलते हुए वह शर्मिष्ठा के पास पहुंची और क्रोध में बोली, तू तो मेरी दासी है फिर तूने मेरा अहित क्यों किया। तेरा आसुरी स्वभाव इतने वर्षों तक यहां रहने के बाद भी नहीं मिटा।
नाराज देवयानी अपने पिता के आश्रम पहुंची
देवयानी की बात सुनकर शर्मिष्ठा बोली, मैंने धर्म और न्याय के अनुसार ही राजर्षि के साथ समागम किया है इसलिए मुझे डरने की कोई बात नहीं। मैने तो तुम्हारे साथ ही इन्हें अपना पति मान लिया था। तुम ब्राह्मण कन्या होने के नाते ही मुझसे श्रेष्ठ हो। फिर भी राजन तुम्हारी अपेक्षा मुझे अधिक प्रिय हैं। इस पर देवयानी राजा की ओर देख कर बोली, आपने मेरा अहित किया है। अब मैं यहां पर नहीं रह सकती। आंखों में आंसू भर कर देवयानी अपने पिता के घर के लिए चल पड़ी। राजा ययाति को इस तरह की कोई उम्मीद नहीं थी इसलिए वह भी देवयानी के पीछे-पीछे समझाते हुए चल पड़े लेकिन देवयानी उनकी बात अनसुनी करते हुए शुक्राचार्य के आश्रम में पहुंचे।