Shri Bhaktamal : “श्री भक्तमाल” की कथा में आगे बढ़ने के पहले इस ग्रंथ के रचयिता नाभादास की बारे में कुछ रोचक जानकारी जानना जरूरी है। गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित एवं श्री प्रियादास जी द्वारा रचित टीका भक्तिरस प्रबोधिनी के अनुसार एक बार की बात है कि नाभादास जी के पूज्य गुरूवर अग्रदास जी भगवान सीता-राम की मानसी उपासना कर रहे थे और उनके शिष्य नाभा धीरे-धीरे पंखे से हवा कर रहे थे। उसी समय गुरूवर का एक अन्य शिष्य समुद्री जहाज से यात्रा कर रहा था और जहाज अचानक समुद्री भवंर में फंस कर रुक गया।
शिष्य ने उस संकट से मुक्ति पाने के लिए गुरुदेव अग्रदास जी को याद किया तो गुरूजी का ध्यान भी अपने संकट ग्रस्त शिष्य की ओर गया और मानसी आराधना टूट गयी। आश्चर्य की बात तो यह है कि गुरु के ध्यान भंग की बात नाभा जी समझ गए और उन्होंने हाथ के पंखे को इतनी तेजी से चलाया कि हवा के झोंके से भंवर में फंसा जहाज निकल गया और सामान्य तरीके से चलने लगा। इसके बाद नाभाजी गुरुजी से बोले, गुरुदेव ! जहाज फिर से चलने लगा है इसलिए आप पहले की तरह फिर से भगवान का ध्यान करने लग जाइए।
इतना सुनते ही गुरु अग्रदास जी ने आंखें खोलते हुए पूछा, यह कौन बोला। नाभाजी ने हाथ जोड़ कर कहा, आपका दास जिसे आपने प्रसाद देकर पाला है। इतना सुनते ही अग्रदास जी आश्चर्यचकित हो कर मन ही मन सोचने लगे, ओह ! हमारे इस शिष्य की इतनी ऊंची स्थिति हो गयी है कि यह तो मेरी मानसी सेवा तक पहुंच गया है और मेरे मन के भावों के अनुरूप कार्य कर दिया। यह विचार आते ही वे बहुत प्रसन्न हुए और जान गए कि संतों की सेवा तथा उनसे प्राप्त प्रसाद की ही यह महिमा है जिससे ऐसी दिव्य दृष्टि मिलती है। तभी उन्होंने नाभा जी को आज्ञा दी
“यह भई तोपै साधु कृपा उनहीं को रूप गुन कहो हिए भाव को” अर्थात हे प्रिय नाभा ! तुम्हारे ऊपर साधुओं की कृपा हुई है, अब तुम उन्हीं साधु संतों के गुण, स्वभाव तथा उनके हृदय के भावों का गान करो।
गुरुदेव की आज्ञा सुन नाभा जी हाथ जोड़ खड़े हो गए और बोले, हे प्रभो ! मैं भगवान श्री राम, श्री कृष्ण के चरित्रों को तो कुछ गा भी सकता हूं लेकिन भक्तों के चरित्रों का आदि अंत पाना बहुत कठिन कार्य है। गुरुदेव ने नाभाजी अर्थात नारायणदास जी की आशंका दूर करते हुए कहा, जिन्होंने तुम्हें मेरी मानसी सेवा में प्रवेश कराया, समुद्र में फंसे जहाज को दिखाया और पंखे की हवा को आगे बढ़ा कर फंसे जहाज को आगे बढ़ा दिया, वे ही भगवान तुम्हारे हृदय में प्रवेश कर भक्तों के तथा अपने भी सब रहस्य खोल कर बता देंगे। नाभाजी ने गुरुदेव की प्रेरणा और आशीर्वाद से भक्तमाल की रचना शुरु की तो चौथे दोहे में ही लिखा …
“अग्रदेव आग्या दई भक्तन को जस गाउ।
भवसागर के तरन को नाहिन और उपाय।।”
अर्थात स्वामी अग्रदेव जी ने मुझ नारायणदास को आज्ञा दी है कि भक्तों के चरित्रों का वर्णन करो, उनका यशोगान करो क्योंकि संसार सागर में पार उतरने का इससे सरल कोई दूसरा उपाय नहीं है।
नाभादास जी के बारे में एक बात और विख्यात है कि इनका जन्म हनुमान जी के वंश में हुआ था और वे जन्म से ही नेत्रहीन थे। ये पांच वर्ष के थे, तभी अकाल से दुखी होकर इनकी मां इन्हें जंगल में छोड़ गयीं। दैवयोग से कुछ ही देर बाद कील्हदेव और अग्रदेव जी उसी मार्ग से निकले और बालक को अनाथ जान उन्होंने कुछ प्रश्न किए जिनका समुचित उत्तर उन्होंने दिया। इसके बाद सिद्ध संतों ने कमंडल का थोड़ा सा जल निकाल बालक नाभादास की आंखों पर छिड़का तो उनकी कृपा से चमत्कार हो गया और उनकी आंखों में रोशनी आ गयी। आंख खोली तो सामने दोनों दिव्य संतों को देखा तो उनके चरणों में सिर नवा दिया। स्वामी कील्हदेव की आज्ञा से स्वामी अग्रदेव ने उन्हें राम मंत्र का उपदेश देते हुए उनका नाम नारायणदास कर दिया।
नाभादास के बारे में मलूक पीठाधीश्वर संत राजेन्द्र दास जी महाराज कहते हैं कि उनके गुरु अग्रदास जी ने उन्हें नारायणदास नाम दिया था। उन्होंने “श्री भक्तमाल” की रचना विक्रम संवत 1650 से 1680 के बीच (ईस्वी सन 1593 से 1623) जयपुर के गलतापीठ नाम के स्थान पर की है, जो श्री रामानन्द सम्प्रदाय की अत्यंत प्राचीन पीठ है। इस पीठ में नाभादास जी तिवारी अभी भी प्रसिद्ध हैं। यह माला श्री भक्तवत्सल श्री ठाकुर जी को बहुत प्रिय है। इसे उन्होंने अपने गले के हार के रूप में धारण किया है। भक्तमाल के मुख्य श्रोता भी ठाकुर जी ही माने गए हैं।