Shri Bhaktamal : श्री पृथु जी के अवतार की कथा

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Shri Bhaktamal : महाराज अंग की पत्नी सुनीथा दूसरों को पीड़ा पहुंचाने वाले साक्षात मृत्यु की पत्नी थीं, जिनसे वेन नाम का पुत्र हुआ। वह भी अपने नाना की तरह निकला। उसकी दुष्टता से तंग आकर ही महाराज अंग राजपाट छोड़ कर नगर से चले गए। राजा के चले जाने से जब राज्य में अराजकता फैलने लगी तो ऋषियों ने कोई और विकल्प न देख वेन को ही राजा बना कर अभिषेक करा दिया। राजा बनते ही वो धर्मात्मा पुरुषों को नुकसान पहुँचाने लगा, ऋषियों ने विरोध कर समझाने की कोशिश की तो उनकी भी नहीं सुनी। उसकी हरकात से नाराज हो ऋषियों ने हुंकार भर कर उसे मार दिया। 

अब फिर राजा न होने का संकट पैदा हुआ तो ऋषियों ने वेन के शरीर का मंथन किया, उसकी जंघा से एक बौना, कुरूप, काला पुरुष पैदा हुआ और उसने पूछा क्या करूं तो ऋषि बोले, निषीद यानी बैठ जा, इसी से वह निषाद कहलाया। ऋषियों ने वेन की भुजाओं का मंथन किया तो पुरुष और स्त्री का जोड़ा निकला, ऋषियों ने पुरुष को पृथु और स्त्री को अर्चि नाम दिया। उन्होंने देखा कि पृथु के हाथ में रेखाओं से चक्र और पैरों में कमल के फूल का निशान है जिससे उन्हें समझ में आ गया कि स्वयं श्री हरि ने संसार की रक्षा के लिए अवतार लिया है और अर्चि के रूप में साक्षात लक्ष्मी हैं। 

ऋषियों ने अब पृथु का राजा के रूप में अभिषेक किया तो राज सिंहासन पर वे अपनी पत्नी अर्चि के साथ विराजमान हुए। लोगों ने उन्हें इस अवसर पर तरह-तरह के उपहार दिए। वेन का कार्यकाल भले ही कुछ समय का रहा किंतु उसके अत्याचार से तंग आकर औषधियां और उनके पौधे सूख गए। परिणाम स्वरूप प्रजा के शरीर सूख कर कांटे के समान हो गए थे। उन्होंने महाराज पृथु को अपनी वेदना बतायी तो उन्हें क्रोध आ गया और पृथ्वी को लक्ष्य कर धनुष पर बाण चढ़ाया। यह देख पृथ्वी गाय का रूप रख डर कर भागी किंतु उसे कहीं भी शरण नहीं मिली तो महाराज पृथु की शरण में आ गयी। उसने राजा को संकेत किया तो गाय रूपी पृथ्वी का उन्होंने दूध दुहा जिससे पहले की तरह अन्न और औषधियां उग आयीं तथा प्रजा सुख चैन से रहने लगी। 

महाराज पृथु ने अश्वमेध यज्ञ की सोची, 99 तो आराम से हो गए किंतु सौंवे की प्रक्रिया शुरु हुई तो इंद्र को अपनी सत्ता जाती हुई दिखी और उन्होंने बाधा पहुंचाना शुरु कर दिया। इसे देख महाराज पृथु को बहुत क्रोध आया किंतु यज्ञ कराने वाले आचार्यों ने क्रोध से रोक दिया। किसी तरह सौ यज्ञ पूरे होने पर यज्ञेश्वर भगवान विष्णु जी प्रसन्न हुए तो देवराज इंद्र को लेकर पृथु जी के सामने प्रकट हुए। अपने व्यवहार पर लज्जित इंद्र क्षमा मांगने झुके तो पृथु ने उन्हें गले लगा लिया। 

भगवान विष्णु के दर्शन कर पृथु उनकी स्तुति करने लगे तो प्रसन्न हो कर भगवान ने पृथु से वर मांगने को कहा। उन्होंने कहा मुझे मोक्ष पद की कामना नहीं बल्कि आपकी भक्ति करते हुए लीला सुनने की इच्छा है इसलिए मुझे 10 हजार कान दीजिए ताकि मै आपके गुणों को सुनता रहूं। भगवान आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गए। बहुत समय तक प्रजा की रक्षा करने के बाद उन्हें सनत्कुमार का उपदेश याद आया कि अब मुझे मोक्ष का प्रयास करना चाहिए। इस पर वे तपोवन में जाकर आत्मयोग से भगवान का चिंतन करने लगे और ब्रह्मस्वरूप में लीन हो गए। यह देख उनकी पत्नी अर्चि भी चिता में पति के साथ सती हो गयीं तो देवांगनाओं ने पुष्प वर्षा की।

 

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