मां दुर्गा का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी : जिनके एक हाथ में जप की माला और दूसरे में कमंडल दर्शाता कठोर तप

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Anjani Nigam

नवरात्र के दूसरे दिन मां दुर्गा के दूसरे स्वरूप की पूजा की जाती है, जिन्हें ब्रह्मचारिणी के नाम से जाना जाता है. यह नाम स्वयं बताता है कि देवी ब्रह्मा के समान कठोर तप का आचरण करती हैं. मां ब्रह्मचारिणी के दाहिने हाथ में जप की माला और बाएं हाथ में कमंडल होता है, जो इस बात का प्रतीक है कि उनकी उपासना करने से साधक के मन में तप, संयम, सदाचार और वैराग्य की भावना प्रबल होती है. साथ ही, इससे साधक को अनंत फल की प्राप्ति होती है.

  मां ब्रह्मचारिणी के नामकरण की पौराणिक कथा

मां पार्वती, जो पर्वतराज हिमालय की पुत्री थीं, ने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी. उन्होंने घने जंगलों में जाकर अपने शरीर की सुध-बुध खो दी और तप में लीन हो गईं. हजारों वर्षों तक तपस्या करते हुए, उन्होंने धूप, बारिश और कड़ाके की ठंड को सहन किया. पहले कुछ समय तक केवल फल खाए, फिर उन्होंने वह भी त्याग दिए और अंत में तीन हजार वर्षों तक सिर्फ बेल के पत्ते खाकर तप किया. यहां तक कि तपस्या के अंतिम चरण में उन्होंने निराहार और निर्जला व्रत धारण किया.

उनकी कठोर तपस्या के कारण ही उन्हें ‘तपश्चारिणी’ कहा गया. बेल के पत्ते खाकर उपवास करने के कारण उनका नाम ‘अपर्णा’ भी पड़ा. मां पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होकर सप्तऋषियों ने उन्हें दर्शन दिए और आशीर्वाद दिया कि उनकी तपस्या पूर्ण हो चुकी है और उनकी मनोकामना शीघ्र ही पूर्ण होगी. उन्होंने मां पार्वती को यह भी कहा कि उनके पिता उन्हें वापस लेने आएंगे और वह बिना किसी जिद्द के घर लौट जाएं. उचित समय पर उनका विवाह भगवान शिव के साथ संपन्न होगा, जिनके लिए उन्होंने कठोर तप किया था.

  ब्रह्मचारिणी का गूढ़ अर्थ

‘ब्रह्मचारिणी’ शब्द दो भागों से मिलकर बना है—’ब्रह्म’ और ‘चारिणी’. ‘ब्रह्म’ का अर्थ है वह, जिसका न कोई आरंभ है और न कोई अंत; जो सर्वव्यापक और सर्वश्रेष्ठ है. जब साधक ध्यान की अवस्था में ऊर्जा के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचता है, तो वह आदिशक्ति से एकाकार हो जाता है. यह वह स्थिति होती है जहां साधक की ऊर्जा ब्रह्म के साथ लिप्त हो जाती है, जो एक अलौकिक अनुभव है. इस अनुभव को शब्दों में बांधना असंभव है. 

‘ब्रह्मचारिणी’ का तात्पर्य है वह जो असीम और अनंत में विचरण करती है. यह नाम हमें बताता है कि हमें तुच्छता और निम्नता से ऊपर उठकर पूर्णता की ओर अग्रसर होना चाहिए. ऊर्जा का यह प्रवाह निरंतर चलता रहता है, और ब्रह्मचर्य का यही वास्तविक अर्थ है—आत्मिक उन्नति और उच्चतम चेतना की ओर अग्रसर होना.

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