व्यक्ति सांसारिक विषयों अर्थात भोग विलास, माया मोह में फंस कर उसे ही सुख मानने की भूल कर बैठता है. यह सब तो क्षणिक सुख है लेकिन यदि वास्तविक सुख और भगवत्प्राप्ति करनी है तो इन सांसारिक सुखों का त्याग ही करना होगा. वीतरागी संत रामसुख दास जी अपने प्रवचनों में कहा करते थे कि वस्तु, व्यक्ति और किसी भी तरह की क्रिया को आसानी से देखा जा सकता है. इनमें वस्तु और क्रिया प्रकृति ही हैं और व्यक्ति के रूप में इन नेत्रों से जो दिखता है वह भी प्रकृति ही है. किंतु इस शरीर के भीतर भी एक चीज है जो कभी नहीं बदलती है, वह है परमात्मा का अंश. अब यदि यह वस्तु, क्रिया और व्यक्ति में न उलझे तो वह स्वाभाविक रूप से हर तरह से मुक्त है, स्वतंत्र है. क्योंकि यह तो परमात्मा का अंश है.
क्या है संयोगजन्य सुख
इसी परमात्मा के अंश के लिए कहा गया है “चेतन अमल सहज सुख रासी.” यह चेतन है, सुख, मल रहित और सहज सुख देने वाला है. यह तो आनंद की राशि है. प्रत्येक व्यक्ति के भीतर यह आनंद की राशि है किंतु व्यक्ति इस ओर ध्यान ने देकर संसार के संबंध से सुख की तलाश में भटक रहा है. मनुष्य से सबसे बड़ी गलती यही हो रही है. वह तो संयोगजन्य सुख में भटक गया है. मनुष्य को लगता है कि धन मिले तो सुख हो, भोजन मिले तो सुख हो, भोग मिले तो सुख हो. कपड़ा, वस्तु, आदर, मान सम्मान, स्वागत सत्कार मिले तो सुख हो.
संयोग से मिला है तो बिछड़ेगा ही
स्वामी रामसुख दास कहते हैं कि संसार में जो चीज संयोग से प्राप्त होती है उसका बिछुड़ना भी तय है. धन, भोजन, भोग, कपड़ा, वस्तु, मान सम्मान यह सब तो संयोग से प्राप्त होने वाली चीजें हैं इसलिए इनका बिछुड़ना भी तय है. जितने भी संयोग होते हैं उनका अंत में वियोग होता है जैसे सांसारिक रिश्ते बाबा-दादी, नाना-नानी, माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, मित्र, पुत्र-पुत्री इन सब से वियोग निश्चित है. लेकिन शरीर के अंदर परमात्म का अंश अविनाशी है तो प्रीत उसी से करो, असली सुख उसी में है.



