PRERAK PRASANG : अतिथि के सेवा में भेदभाव क्यों, जानिए प्रेरक प्रसंग में जब भगवान ने महात्मा जी को स्वयं सपने में क्या निर्देश दिया
PRERAK PRASANG : भारत भूमि संतों और तपस्वियों से भरी पड़ी है जो एकांत में कुटिया बना कर ईश्वर साधना में लीन रहते हैं. ऐसे ही एक महात्मा जंगल में अपनी कुटी में रहते थे, अतिथि सेवा को ही उन्होंने ईश्वर साधना का साधन मान लिया था सो कुटिया के सामने से निकलने वाले प्रत्येक व्यक्ति को रोक कर उसकी सम्मान और प्रेम पूर्वक भोजन सत्कार करते थे. ऐसे करते हुए हुए उन्हें बरसों बीत गए. लेकिन एक दिन संध्या ढ़लने को आई फिर भी उन्हें अतिथि सेवा का अवसर नहीं मिला, नियम टूटने की चिंता उन्हें परेशान कर रही थी. धुंधलका होने के साथ ही उनकी व्याकुलता भी बढ़ती जा रही थी तभी उन्हें एक लगभग सौ वर्षीय वृद्ध लकड़ी के सहारे धीरे धीरे आगे बढ़ता हुआ दिखा. महात्मा जी के चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा. उन्होंने वृद्ध को प्रणाम कर कुटिया में बुलाया और हाथ पांव धुलवा कर भोजन परोसा.
वृद्ध के आचरण से हुआ आश्चर्य
वृद्ध के आचरण से हुआ आश्चर्य
महात्मा ने देखा कि वृद्ध बिना कोई प्रार्थना किए भोजन करने लगे जिसे देख कर महात्मा को घोर आश्चर्य हुआ और इसका कारण पूछा. वृद्ध ने उत्तर दिया, “मैं केवल अग्निदेव की ही पूजा करता हूं अन्य किसी देवता की नहीं और न ही मेरा किसी ईश्वर में विश्वास है.” वृद्ध की इस बात को सुनते ही शांत और प्रसन्न रहने वाले महात्मा जी क्रोधित हो गए क्य़ोंकि उन्हें लगा कि वह वृद्ध भगवान का अपमान कर रहा है. क्रोध में उन्होंने भोजन का थाल खींच कर उसे कुटिया से निकाल दिया. उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि रात के समय वह वृद्ध जंगल में कहां जाएगा.
भगवान ने सपने में दिया संदेश
महात्मा जी रात्रि आरती कर सो गए तो एक सपना देखा. भगवान उनसे कह रहे थे, “हे साधु, जिस वृद्ध को तुमने कुटिया से बाहर निकाला, उसके साथ किए गए व्यवहार से तुम्हारा सारा पुण्य नष्ट हो गया.” महात्मा जी ने भगवान से विनम्रता से उत्तर दिया, “प्रभु, मैंने उसे इसलिए निकाला क्योंकि उसने आपका अपमान किया था और आपकी उपासना नहीं करता था.” भगवान ने मुस्कुराकर कहा, “यह सत्य है कि वह सौ वर्षों से मेरा अपमान करता आ रहा है, फिर भी मैंने उसे सहन किया, लेकिन तुम तो एक दिन भी उसे सहन नहीं कर सके”
भगवान से मांगी क्षमा
भगवान के ये शब्द सुनकर महात्मा जी को अपनी गलती का अहसास हुआ. वे अत्यधिक दुखी हुए और भूल सुधारने का निश्चय किया. सुबह होते ही वे वृद्ध को खोजने निकल पड़े और वृद्ध से भेट होते ही उन्होंने क्षमा याचना कर आदरपूर्वक अपनी कुटिया में आमंत्रित किया और खूब सेवा सत्कार किया.
कथा से शिक्षा
इस प्रेरणादायक कथा से हमें यह सीख मिलती है कि सच्चा अतिथि सत्कार बिना किसी भेदभाव के किया जाना चाहिए. सेवा और दया सच्ची भक्ति का प्रतीक है. यदि भगवान स्वयं एक नास्तिक को सहन कर सकते हैं, तो हमें भी सहनशीलता और करुणा के मार्ग पर चलना चाहिए. अतिथि देवा भवः ही भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है.