दुर्गमासुर का अंत कर माता ने क्षेत्र के सूखे और अकाल को किया दूर, जानें माता शाकम्भरी की कथा

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पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सहारनपुर जिला जहां एक ओर नक्काशीदार लकड़ी के आकर्षक उत्पादों के लिए प्रसिद्ध है, वहीं यहां कि शिवालिक पर्वत शृंखला की तलहटी में बेहट तहसील के प्राकृतिक सुरम्य क्षेत्र स्थित मां शाकंभरी देवी का मंदिर हर साल लाखों भक्तों को बुलाता है. देवी भगवती के 51 शक्तिपीठों में से एक के रूप में इस मंदिर की मान्यता है. नवरात्र के अवसर पर दर्शनार्थियों की यहां लंबी लाइन लग जाती है. मान्यता है कि यहां दर्शन करने वालों की मुराद कभी खाली नहीं जाती. उपासना करने वालों के घर शाक यानी भोजन के भंडार भरे रहते हैं. माता शाकंभरी को सहारनपुर की अधिष्ठात्री देवी के रूप में माना जाता है.  

शाकम्भरी देवी की कथा और महत्ता
माना जाता है कि यहां पर माता सती का शीश कट कर गिरा था. देवी पुराण, शिव पुराण तथा अन्य धर्म ग्रंथों के अनुसार हिरण्याक्ष के वंश में एक महादैत्य रुरु था जिसका दुर्गम नाम का पुत्र हुआ. दुर्गमासुर ने ब्रह्मा जी की तपस्या करके चारों वेदों को अपने अधीन कर लिया. वेदों के न रहने से ब्राह्मणों ने अपना धर्म त्याग दिया जिससे हवन पूजन यज्ञ आदि सभी अनुष्ठान बंद हो गए और चारों ओर हाहाकार मचने लगा. इसके परिणामस्वरूप सभी देवता शक्तिहीन हो गए. भयंकर अकाल पड़ा और जल के अभाव में पेड़ पौधे सूख गए, भूख प्यास से बेहाल होकर जीव मरने लगे. दुर्गमासुर के साथ देवताओं का भयंकर युद्ध हुआ किंतु वह हार गए. इससे दुर्गमासुर का अत्याचार और भी बढ़ गया. उससे बचने के लिए देवताओं ने शिवालिक पहाड़ियों में शरण ली और मां भगवती का ध्यान करने लगे. देवताओं की पुकार सुन मां प्रकट हुईं और देवताओं सहित सबकी दुर्गति देख उनकी आंखों से आंसुओं की  धारा बहने लगी. मां की कृपा से भारी जल वर्षा हुई जिससे नदी तालाब भर गए. देवताओं ने उनकी मां शताक्षी के रूप में आराधना की. सौम्य स्वरूप शताक्षी देवी कमल के आसन पर विराजमान थीं और जिनके हाथों में कमल का फूल, बाण, शाक फल और तेजस्वी धनुष धारण था. उन्होंने वहीं पर अनेकों शाक उत्पन्न किए जिन्हें खाकर लोगों की भूख शांत हुई. पहाड़ों पर उनकी दृष्टि पड़ते हुए कंद मूल की उत्पत्ति हुई जिसके कारण वे शाकम्भरी देवी के नाम से पूजित हुई. 

बाद में देवी ने दुर्गामासुर को रिझाने के लिये सुंदर रूप धारण कर शिवालिक पहाड़ी पर आसन लगाया. जब असुरों ने पहाड़ी पर उन्हें बैठे देखा तो उन्हें पकड़ने के लिए असुरों के साथ स्वयं दुर्गमासुर भी आया. मां पृथ्वी और स्वर्ग के बाहर एक घेरा बना कर स्वयं उसके बाहर खड़ी हो गयीं. घनघोर युद्ध में दुर्गमासुर सहित अन्य असुरों का संहार किया. 

माता से पहले, करें भूरा देव के दर्शन
असुरों के साथ युद्ध में वहां रहने वाला भूरादेव अपने पांच साथियों के साथ मां की शरण में आया और युद्ध में सहयोग की प्रार्थना की. उसने कई असुरों को तो मारा किंतु अंत में वह भी मारा गया. युद्ध समाप्त होने पर माता ने भूरादेव को जीवित कर वरदान मांगने को कहा तो उसने हमेशा मां के चरणों की सेवा मांगी. इस पर माता ने उससे कहा कि किसी भी भक्त द्वारा मेरे दर्शनों का मनोरथ तभी पूरा होगा जब वह पहले भूरादेव के दर्शन करेगा. तभी से बिना भूरादेव के दर्शन किए माता शाकंभरी का दर्शन अधूरा माना जाता है. 

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