देवर्षि नारद की उदासी उनके चेहरे पर झलक रही थी, इसे देख सनकादिक ऋषियों ने उन्हें रोककर पूछा, हे ब्राह्मण आप इतनी जल्दी में कहां जा रहे हैं और आप परेशान व चिंतातुर क्यों हैं. उन्होंने यह भी पूछा कि आपका आगमन कहां से हो रहा है. आप तो देवर्षि होने के बाद भी किसी ऐसे सामान्य व्यक्ति की भांति दुखी दिख रहे हैं जिसका सारी धन संपत्ति लुट गई हो. आप जैसे आसक्ति रहित के लिए ऐसी स्थिति ठीक नहीं है. सनकादि ऋषियों की बात सुन नारद मुनि वहां पर रुक गए और बोले, मैं तो सर्वोत्तम लोक समझ कर पृथ्वी पर आया था. यहां पर पुष्कर, प्रयागराज, काशी, गोदावरी, हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, श्री रंग और सेतुबंध रामेश्वर आदि न जाने कितने स्थानों पर गया किंतु कहीं भी मन को संतोष देने वाली शांति नहीं मिली.
कलियुग का प्रभाव देख चिंतित हुए नारद जी
उन्होंने कहा कि इस समय अधर्म के सहायक कलियुग ने सारी पृथ्वी को बुरी तरह से अपनी जकड़ में लेकर पीड़ित कर रखा है. अब इस लोक में सत्य, तप, स्वच्छता, दया, करुणा, दान आदि कुछ भी नहीं बचा है. बेचारे जीव केवल अपना पेट पालने में लगे हुए हैं. ये सभी असत्यभाषी, आलसी, मंदबुद्धि, भाग्यहीन और उपद्रवी स्वभाव के हो रहे हैं.
लोगों को आचरण सिखाने वाले बन गए पाखंडी
जिन्हें हम साधु संत के रूप में जानते हैं वे भी सब पाखंडी हो गए हैं. देखने में तो विरक्त ही दिखते हैं और वे अपने को कहते भी ऐसा ही हैं किंतु सब धन, संपत्ति और स्त्री में डूबे हुए हैं. घरों में महिलाओं का राज हो गया है और पुरुषों के साले सलाहकार बन कर बैठे हैं. बहुत से देवालयों को विधर्मियों ने तोड़ दिया है. स्थिति इतनी खराब हो गयी है कि ब्राह्मण पैसा लेकर वेद पढ़ाते हैं और महिलाएं वेश्यावृत्ति में संलग्न हो रही हैं. सत्कर्म तो गायब ही हो गया है. घरों में महिला और पुरुष कलह के शिकार हो रहे हैं और सारे साधन कालरूपी आग में जलकर भस्म हो चुके हैं.