Dharm : जानिए राजकुल में जन्मी उस महिला की कहानी जिसका जीवन त्याग, तपस्या और मातृत्व से भरा रहा
Dharm : भारत भूमि यूं तो त्याग तपस्या और धर्मात्मा पुरुषों और महिलाओं से भरी पड़ी है. महाभारत काल में ऐसी ही एक महिला थीं जिनका पूरा जीवन त्याग, तपस्या बलिदान और मातृत्व से भरा पड़ा है. उनका नाम था माता कुंती.
बचपन और दुर्वासा ऋषि का वरदान
कुन्ती का जन्म शूरसेन के राजकुल में हुआ और बाल्यकाल में ही वे अपने बुआ के पुत्र महाराज कुन्तिभोज को दान कर दी गईं. उनका असली नाम पृथा था. बाल्यकाल से ही वे सात्त्विक एवं धर्मपरायण थीं. जब वे अपने पिता के घर में थीं, तब दुर्वासा ऋषि उनके अतिथि बने. अत्यंत श्रद्धा, संयम और परिश्रम से उन्होंने उनकी सेवा की. छोटी सी बात पर अप्रसन्न हो श्राप देने वाले ऋषि उनकी सेवा से प्रसन्न हुए और उन्हें वरदान दिया कि जिस देवता का वे आह्वान करेंगी, वे तत्काल उनके समक्ष प्रकट होंगे. वरदान का परीक्षण करने के कौतुहल में कुन्ती ने सूर्यदेव से पुत्र का आह्वान कर दिया. आह्वान करते ही सूर्यदेव की तरह ही दिव्य कवच कुंडलधारी बालक का जन्म हुआ किंतु लोक व्यवहार अविवाहित मातृत्व की अनुमति नहीं देता है इसलिए उन्होंने अपने नवजात को एक डलिया में रख कर नदी में प्रवाहित कर दिया. इस बालक को जहां अधिरथ और राधा ने उसे अपना पुत्र मानकर पालन-पोषण किया.
देवताओं के अंश रूप में हुआ पाण्डु पुत्रों का जन्म
देवताओं के अंश रूप में हुआ पाण्डु पुत्रों का जन्म
बाद में एक स्वयंवर में माता कुन्ती ने हस्तिनापुर के सम्राट महाराज पाण्डु को पति रूप में चुना. विवाह के उपरांत पाण्डु को एक शाप लगा कि यदि वे सहवास करेंगे तो उनकी मृत्यु हो जाएगी जिसके कारण संतानोत्पत्ति असंभव हो गई. तब कुन्ती को दुर्वासा ऋषि का वरदान फिर याद आया और मंत्रों का स्मरण कर देवताओं का आह्वान कर पांच पुत्रों को जन्म दिया जो धर्मराज के अंश के रूप में युधिष्ठिर, पवनदेव से भीम, इंद्रदेव से अर्जुन हुए. इसी तरह माद्री ने अश्विनीकुमारों का आह्वान कर नकुल और सहदेव को जन्म दिया. पति पाण्डु की मृत्यु के बाद माद्री सती हो गईं तो कुन्ती ने पांचों पुत्रों का पालन और रक्षा का दायित्व संभाला.
एक मां सूझबूझ से अपने पुत्रों की करती रही रक्षा
महाराज धृतराष्ट्र के सौ पुत्र थे जिनमें सबसे बड़ा दुर्योधन था. वह पाण्डुपुत्रों को राज्य में हिस्सा नहीं देना चाहता था इसलिए वह लगातार षड़यंत्र करता रहता था. हस्तिनापुर लौटने पर कुन्ती अपने पुत्रों के साथ कई बार षड्यंत्रों का शिकार हुईं, यहां तक कि दुर्योधन ने भीम को विष पिलाया, लाक्षागृह में जलाने का प्रयास किया किंतु माता कुन्ती की सूझबूझ से हर बार पाण्डव बच निकले. एकचक्रा नगरी में प्रवास के दौरान, भीमसेन ने बकासुर राक्षस का वध किया. फिर द्रौपदी स्वयंवर में अर्जुन ने विजय प्राप्त की और माता कुन्ती के वचनों से वे पांचों भाइयों की पत्नी बनीं.
एक जानकारी पर धर्मराज ने महिलाओं को दिया श्राप
कुन्ती ने अपने पुत्रों को सदैव धर्मपरायण और कर्तव्यनिष्ठ रहने की प्रेरणा दी. जब श्रीकृष्ण शांति दूत बनकर हस्तिनापुर गए तब कुन्ती ने अपने पुत्रों को क्षत्रीय धर्म का पालन करने और भिक्षावृत्ति की प्रवृत्ति त्यागने का संदेश दिया. युद्ध के दौरान, उन्होंने श्रीकृष्ण से अपने पुत्रों की रक्षा का अनुरोध किया. महाभारत युद्ध में कर्ण के मारे जाने के बाद कुन्ती ने युधिष्ठिर से कहा कि कर्ण उनका ज्येष्ठ पुत्र था. यह सुनकर धर्मराज अत्यंत शोकाकुल हुए और माता के इस रहस्य को छिपाने की नीति पर खेद प्रकट किया. उन्होंने उसी समय महिलाओं को यह श्राप दिया अब से कोई भी महिला बात गुप्त नहीं रख सकेगी. महाभारत युद्ध के पश्चात् जब पाण्डवों ने राज्य प्राप्त किया, तब माता कुन्ती ने धृतराष्ट्र और गांधारी के साथ संन्यास ग्रहण कर वनगमन किया. वे अपने अंतिम समय तक भक्ति और तपस्या में लीन रहीं.