Dharm: ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भंडार, संपूर्ण विश्व के हितकारी, सभी लोकों में अबाध गति से चलने वाले, समस्त गुणों के आधार, सभी लोगों को नियमों का उपदेश देने वाले, वेदों के मर्मज्ञ नारद मुनि को सब लोग देवर्षि भी कहते हैं. सभी युगों, सभी लोकों, सभी शास्त्रों, सभी समाजों और सभी कार्यों में नारद जी का प्रवेश रहता है. इन्हें भगवान का “मन” भी कहा जाता है. आइए जानते उनके बारे में कि आखिर वे देवताओं के लिए भी क्यों पूज्यनीय हैं.
कई लोगों को भक्ति मार्ग पर चलने को प्रेरित किया
भक्ति के प्रधान आचार्य के रूप में पहचाने जाने वाले नारद जी ने भक्तिसूत्रों की रचना कर भक्ति तत्व की बहुत ही सुंदर व्याख्या की है. प्रत्येक युग में घूम घूबम कर भक्ति का प्रचार करने वाले देवर्षि आज भी अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं. इतना ही नहीं उन्होंने समय समय पर अधिकारी पुरुषों को साक्षात दर्शन देकर भी कृतार्थ किया. भक्त प्रह्लाद, ध्रुव, अम्बरीष जैसे न जाने कितने ही लोगों को इन्होंने भक्तिमार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया. श्री मद्भागवत और वाल्मीकी रामायण जैसे अनूठे ग्रंथों को संसार के लोगों को दिलाने का कार्य किया. शुकदेव मुनि जैसे महाज्ञानी को भी नारद जी ने ही उपदेश दिया था.
नारायण नाम जपने में हृदय में हुआ प्राकट्य
महर्षि के पूर्व जन्म के बारे में श्री मद्भागवत में लिखा है कि ये दासी पुत्र थे, भगवान के असीम अनुग्रह से इन्हें बचपन में ही संत समागम प्राप्त हो गया था. जिस गांव में ये रहते थे, वहां पर चातुर्मास बिताने के लिए बहुत से महात्मा एकत्र हुए. वहां महात्माओं के भोजन करने के बाद उनके पत्तलों की जूठन खाने को मिल जाती थी जिससे इनके सभी पाप धुल गए और निरंतर भगवान की कथाओं को सुनने से उनके अंदर भक्ति भाव का संचार हो गया. उन सिद्ध मुनियों ने चातुर्मास पूरा करने के बाद जाते समय इन्हें ज्ञान का उपदेश दिया जिससे इनकी बुद्धि भक्तवत्सल भगवान में स्थिर हो गयी. पांच वर्ष की अवस्था में ही माता की मृत्यु होने के बाद सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त हो कर जंगलों में निकल पड़े. एक पेड़ के नीचे बैठ कर भगवान के स्वरूप का ध्यान कर “नारायण-नारायण” का नाम जप करने लगे. इसी बीच इनके हृदय में भगवान का प्राकट्य हुआ और क्षण भर में ही वह स्वरूप विलुप्त हो गया. ये विचलित हो गए और पुनः नारायण का ध्यान करने लगे.
आकाशवाणी सुन मन को मिली शांति
इसी बीच आकाशवाणी हुई कि इस जन्म में दर्शन नहीं होंगे किंतु इस शरीर को त्यागने के बाद तुम मेरे पार्षद बनोगो और मुझे प्राप्त कर सकोगे. इसके बाद तो ये इधर उधर भक्ति का प्रचार प्रसार करते रहे और समय आने पर देह त्याग कर ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए. तभी से नारद मुनि अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए भगवान की दी हुई वीणा बजाते हुए उनके गुणों का बखान करते हुए सभी लोकों में विचरण कर रहे हैं.