धर्मग्रंथों के अनुसार सूर्य की पत्नियां ही उनकी शक्तियां हैं जिनके नाम क्रमशः ऊषा और प्रत्यूषा हैं. वास्तव में ऊषा सूर्योदय के समय की पहली किरण को कहते हैं और इसी तरह सूर्यास्त के समय की अंतिम किरण को प्रत्यूषा कहते हैं. सूर्य की उपासना में इन्हीं दोनों किरणों को अर्ध्य देकर एक प्रकार से दोनों के बीच संतुलन स्थापित किया जाता है. कार्तिक शुक्ल चतुर्थी के दिन नहाय खाय के साथ सूर्य पूजा का अनूठा अनुष्ठान शुरु हो जाता है जिसमें 36 घंटे तक निर्जला व्रत का तप करना होता है. सामान्य तौर पर महिलाएं अपने पति और पुत्र के स्वास्थ्य तथा दीर्घायु की कामना से व्रत करती हैं किंतु अब बड़ी संख्या में पुरुष भी इस परम्परा को निभाने लगे हैं.
सूर्य उपासना की परंपरा
वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा बताया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ है सर्व प्रेरक, सूर्य देव सभी को बराबर से प्रकाश रूपी ऊर्जा देकर सर्व कल्याणकारी का कार्य करते हैं. यजुर्वेद में सूर्य को भगवान की आंख बताया गया है. ज्योतिष शास्त्र में इसीलिए सूर्य ग्रह को ग्रहों के राजा की उपाधि दी गयी है. छान्दोग्य उपनिषद में सूर्य की साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है. सूर्य उपनिषद में सूर्य को संपूर्ण जगत का कारक बताते हुए संसार की आत्मा और ब्रह्म बताया गया है. प्रसिद्ध गायत्रि मंत्र सूर्य परक ही है, योग में सूर्य नमस्कार को योगों को राजा बताया गया जो पूरे शरीर को स्वस्थ रखता है.
भगवान श्री कृष्ण के पुत्र ने की उपासना
बताते हैं वैदिक काल में सूर्य की उपासना मंत्रों से होती थी किंतु मूर्ति पूजा का प्रचलन होने पर सूर्य की मूर्तियां और मंदिर बनने लगे. माना जाता है कि पौराणिक काल तक सूर्य की उपासना समाज जीवन में प्रचलित हो गई थी. बाद में सूर्य के मंदिर भी बनने लगे जहां विधिवत उपासना प्रारंभ हो गई. उपासना के लिए अनुष्ठान प्रारंभ हुए जिसके लिए विशेषज्ञ आचार्य बुलाए गए. भविष्य पुराण के अनुसार शिष्यों के साथ द्वारिका पहुंचे दुर्वासा मुनि को देख कर श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब ने उनकी हंसी उड़ाई जिस पर उन्होंने श्राप दिया कि वह जल्द ही कुष्ठ रोगी हो जाएं. साम्ब पर उस रोग का प्रभाव होने पर उसने अपने पिता से इसका उपाय पूछा तो उन्होंने नारद मुनि के पास भेज दिया. नारद जी ने सूर्य उपासना करने को कहा जिससे साम्ब को कुष्ठ रोग से मुक्ति मिली.
पर्यावरणीय संतुलन संग जलसंरक्षण का संदेश
छठ पूजा में पर्यावरणीय संतुलन का अद्भुत सामंजस्य देखने को मिलता है. इसकी पूजा में मिट्टी के दीए, बांस से बने सूप, गन्ने के रस, गुड़, चावल व गेहूं से बने प्रसाद, मीठी लिट्टी और प्राकृतिक रूप से पैदा होने फलों का उपयोग होता है. इस पर्व पर गाए जाने वाले गीतों में भी प्रकृति की उपासना होती है. साफ सफाई और पवित्रता को इस पर्व का विशेष आधार माना जाता है. तामसी भोजन से दूर रह कर सात्विक आहार और विचार तन मन को स्वस्थ रखता है. यह पर्व हमें पवित्र तो करता ही है, हमें पारिवारिक और सामाजिक एकत्रीकरण का भी संदेश देता है और उन अपनों से मिलाने का कार्य करता जिनसे लंबे समय से मिलना नहीं हो पाता है. इसीलिए लोक परम्परा बन गयी है कि वर्ष में एक बार होने वाले इस पर्व को पूरा परिवार मिल कर मनाता है. यह पर्व हमें संतुलन व पर्यावरण के प्रति जागरुकता प्रदान करने के साथ ही रास्तों का प्रबंधन, जल प्रबंधन और ऊर्जा का प्रबंधन भी सिखाता है.