दशहरा का पर्व अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में मनाया जाता है क्य़ोंकि इसी दिन प्रभु श्री राम ने लंकाधिपति रावण का अंत किया था, प्रतीक रूप में गांव शहर हर जगह रावण का पुतला भी फूंका जाता है. लेकिन कम ही ऐसे स्थान होंगे जहां रावण जिसे दस सिरों के कारण दशानन भी कहा जाता है, उसके मंदिर बने हों और विजयादशमी के दिन विधि विधान से पूजा होती है. जी, हां कानपुर में बड़ा चौराहा के निकट है खास बाजार मोहल्ला जिससे सटा हुआ कैलाश मंदिर परिसर. वैसे तो परिसर में तेरह मंदिर हैं जिनमें सभी देवी देवताओं की प्रतिमाएं हैं किंतु यहां पर दो खास मंदिर हैं जिनके कारण यह स्थान देश भर में प्रसिद्ध है. पहला यहां का दशासन मंदिर और दूसरा कैलाश मंदिर जिसका विशाल शिवलिंग भक्तों को आकर्षित करता है.
दशानन मंदिर जो सिर्फ एक दिन ही खुलता
इस मंदिर का इतिहास डेढ़ सौ साल से भी अधिक पुराना है. जिस दिन पूरी दुनिया रावण के पुतले का दहन कर खुशियां मनाती है, ठीक उसी दिन सुबह दशासन के इस मंदिर के पट खोल कर भक्त पूजा पाठ करते हैं. दरअसल यहां पर दशासन को ज्ञान, बुद्धि और शक्ति के रूप में देखा जाता है. विजयदशमी की सुबह मंदिर में प्रतिमा का श्रृंगार-पूजन कर कपाट खोले जाते हैं और शाम को आरती उतारने के साथ ही पट बंद कर दिए जाते हैं. सामान्य तौर पर देखा गया कि दशासन की आरती के समय अचानक ही भक्तों को नीलकंठ के दर्शन भी हो जाते हैं. नीलकंठ को भगवान शंकर का प्रतीक माना जाता है. भक्त दशासन की प्रतिमा के समीप दीपक जला कर अपनी संतान के बुद्धिमान और कुशाग्र होने की प्रार्थना करते हैं. अहंकार के रूप में रावण के पास एक ही अवगुण था जो उसके पतन का कारण बना. इससे सीख मिलती है कि ज्ञानी होने के साथ ही अहंकार नहीं पालना चाहिए.
कैलाश मंदिर में है विशाल शिवलिंग
कैलाश मंदिर परिसर में सफेद संगमरमर से निर्मित विशाल शिवलिंग है, जिसे दोनों हाथों का घेरा बनाने पर भी नहीं पकड़ा जा सकता है. ऊंचाई इतनी अधिक की मुख्य द्वार छोटा पड़ता है फिर भी भगवान की ऐसी कृपा बताई जाती है कि शिवलिंग अपने स्थान पर ही विराजमान किया गया. जानकार बताते हैं कि जब मंदिर का निर्माण हो रहा था तभी शिवलिंग का निर्माण उन्नाव में कराया गया क्योंकि मंदिर निर्माता भी वहीं के रहने वाले थे. शिवलिंग बनकर तैयार हुआ तो गंगा नदी में बाढ़ की स्थिति थी और पानी उतरने पर नाव के सहारे शिवलिंग को कैलाश मंदिर लाया गया तब तक मुख्य द्वार सहित कैलाश मंदिर का निर्माण हो गया था. शिवलिंग भीतर न जा सकने के कारण निर्माता दुखी हो गए क्योंकि वो मंदिर को तुड़वाना भी नहीं चाहते थे. इस पर उन्होंने अन्न का त्याग कर दिया. इसी बीच शंकराचार्य जी कानपुर आए तो उनके सामने समस्या रखी गयी. उन्होंने परिसर में हवन शुरु किया और सारे पट बंद करा दिए गए, तीन दिन बीतने पर निर्माता को स्वप्न आया जिसके आधार पर मंदिर खोला गया तो गया तो शिवलिंग अंदर अपने स्थान पर विराजमान थे.
बिजली गिरी लेकिन बाबा ने अपने ऊपर ले ली
2024 जुलाई माह में तेज बारिश के बीच सुबह के समय क्षेत्र में तेज चमक के साथ मंदिर पर बिजली गिरी लेकिन चमत्कार हो गया. हल्का सा प्लास्टर ही उखड़ा और मंदिर को कोई नुकसान नहीं हुआ. क्षेत्र निवासी वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ अवस्थी ने बताया उस समय वह मौके पर ही थे और मंदिर के अंदर कुछ भक्त शिव जी की पूजा भी कर रहे थे. लोगों का मानना है कि बाबा ने सबके ऊपर आने वाली विपदा को अपने पर ले लिया. बाद में प्रबंधकों ने क्षतिग्रस्त भाग की मरम्मत करा दी.
परिसर में हैं तेरह मंदिर
इतिहासकार अनूप शुक्ला ने मंदिर की स्थापना के संबंध में बताया कि उन्नाव जनपद के पट्टी ग्राम निवासी रईस पं० गुरुप्रसाद शुक्ल 1857 की क्रांति के बाद कानपुर आए. परिसर नन्हे नवाब का था, जिसे पंडित गुरुप्रसाद ने अंग्रेजो से सन् 1862 की नीलामी में खरीदा और 1869 में कैलाश मंदिर स्थापित किया. उनके द्वारा स्थापित तेरह मंदिरों में सैकड़ों देव विग्रह पूजित हैं. पं. गुरु प्रसाद शुक्ल के माननीय बाजपेयी परिवार द्वारा आज भी मंदिर संरक्षित है और देखरेख की जाती है. इसी परिसर में मां भगवती छिन्नमस्तिका और रावण मंदिर आकर्षण का केंद्र है.



