दुर्गा पूजा पंडालों में विजयादशमी को होगी सिंदूर खेला की धूम, जानें इस परम्परा के पीछे क्या है पौराणिक कथा

0
623

Madhuri Mukharjee

नवरात्र में मां दुर्गा की पूजा देश ही नहीं विदेशों में भी बसे हिंदू करते हैं लेकिन पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा की बात ही निराली है जहां भव्य पंडालों में मां की आराधना के साथ विभिन्न आयोजन होते हैं. वैसे तो पंचमी के दिन पंडाल में मां के विधि विधान से विराजमान होने के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम मच जाती है लेकिन अष्टमी नवमी और दशमी का विशेष महत्व होता है जिसमें संधि पूजा और सिंदूर खेला का खास महत्व होता है. आइए समझते हैं संधि पूजा, महिलाओं के सफेद और लाल साड़ी पहनने, 10 दिनों तक मायके में रुकने और सिंदूर खेला के बारे में. 

इसलिए होता है सिंदूर खेला का आयोजन

दुर्गा पूजा पंडालों में दशमी के दिन मां के विसर्जन के पहले सिंदूर खेला जाता है. इसमें सबसे पहले विवाहित महिलाएं मां को पान के पत्ते से सिंदूर चढ़ा कर मिष्ठान अर्पित करती हैं और फिर महिलाएं एक दूसरे के सिंदूर यानी अबीर लगाती हैं. पश्चिम बंगाल ही नहीं पूरे देश में जहां कहीं भी बंगाली समाज आयोजन होता है वहां पर इस परम्परा को बहुत ही प्रसन्नता के साथ निभाया जाता है. यह नजारा देखने लायक होता है ऐसा करने से मां का आशीर्वाद प्राप्त होता है. माता पार्वती को भी आशीर्वाद देने के लिए सिंदूर दिया गया है. सिंदूर खेला के माध्यम से पति की दीर्घायु और मंगल कामना की कामना की जाती है. इसके बाद ही मां की प्रतिमा का विसर्जन होता है. विसर्जन का तात्पर्य है कि जिस मिट्टी और जल से निर्माण हुआ है उसी में विलीन हो जाना अर्थात जहां से जन्म हुआ उसी में डूब जाना. 

दुर्गा पूजा में मायके जाने और साड़ी की परम्परा

दुर्गा पूजा का पर्व मनाने के लिए महिलाएं अपने बच्चों के साथ मायके आती हैं और धूमधाम से उत्सव मनाने के बाद फिर अपनी ससुराल चली जाती हैं. इस परम्परा को भी माता पार्वती से लिया गया है, मान्यता है कि मां साल में एक बार ही अपने मायके आती हैं और 10 दिन रुकने के बाद ससुराल यानी अपने पति भगवान शंकर के पास कैलाश पर्वत चली जाती हैं. दस दिन की इस अवधि को दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाता है. दुर्गा पूजा में सामान्य तौर पर महिलाओं के लाल और सफेद साड़ी पहनने का रिवाज है. दरअसल सफेद रंग शांति और लाल रंग उग्रता का प्रतीक है, मां शांत और उग्र दोनों ही रूपों में रहती हैं. मां सामान्य रूप से भक्तों को आशीर्वाद ही देती हैं किंतु शत्रु असुरों के आने पर उग्र रूप धारण कर रणचंडी बन जाती है. इसका अर्थ है कि एक महिला अपना वात्सल्य तो देती ही है लेकिन जरूरत पड़ने पर शत्रु को मारने में संकोच नहीं करती है. 

सिर्फ 48 मिनट ही होती है संधि पूजा

संधि पूजा में माता चामुण्डा की आराधना की जाती है. यह अष्टमी के आखिरी 24 मिनट और नवमी के प्रारंभ के 24 मिनट संधि पूजा होती है अर्थात संधि पूजा के लिए सिर्फ 48 मिनट ही मिलते हैं. माता ने 64 योगिनी का रूप धारण किया था, उनकी पूजा भी की जाती है. महिषासुर का वध करने के लिए मां ने 48 स्वरूप धारण किए थे और त्रिशूल से संधि काल में उसका वध किया था.  उसी आधार पर संधि पूजा करने की परम्परा चली आ रही है. संधि पूजा में मां को 108 कमल के फूल चढ़ाए जाते हैं. इसके पीछे की मान्यता है कि भगवान श्री राम ने भी रावण से युद्ध के पहले मां दुर्गा की पूजा की और इसके लिए कमल के 108 फूल भी एकत्र किए थे. मां चामुण्डा की आराधना में भी 108 कमल के फूल मां के नामों के उच्चारण के साथ अर्पित किए जाते हैं.   

Website |  + posts

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here