सिख पंथ के प्रवर्तक गुरु नानक देव जी महाराज की शिक्षाएं किसी एक समय या एक स्थान के लिए नहीं बल्कि सार्वभौमिक सार्वकालिक और पूरी मानवता की भलाई के लिए थीं, उन्होंने संपूर्ण विश्व के लिए कार्य किया इसीलिए उन्हें लोक चेतना जगाने वाले संत के रूप में संसार भर में माना जाता है. उनका जन्म वर्तमान पाकिस्तान के तलवंडी नामक स्थान पर 1469 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन हुआ था. उनकी शिक्षाओं का उद्देश्य मानव मात्र का कायाकल्प करते हुए सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक क्षेत्र में सर्वपक्षीय क्रांति लाना था, यही कारण है कि उनकी वैचारिकी की प्रासांगिकता आज 555 साल बाद भी बनी हुई है.
लंगर से दिया मानवता सेवा का मंत्र
उन्होंने जगत के कल्याण के लिए नई चेतना दी जिसके मूल में परिश्रम करना, मिल बांट कर खाना और प्रभु का सिमरन करना प्रमुख है. गुरु महाराज का जन्म ऐसे समय में हुआ था जब अनेक पंथ, दर्शन, विचारधाराओं और सिद्धांतों के कारण सामान्य व्यक्ति के लिए धर्म के मर्म को समझना कठिन हो रहा था. लोग जात-पांत, ऊंच-नीच और भेद-भाव की भावना से बुरी तरह ग्रस्त थे. तत्कालीन इस्लामी शासन ने स्थितियों को और भी बिगाड़ कर रख दिया था. ऐसे समय में गुरु नानकदेव जी ने प्रभावपूर्ण ढंग से मानवता को धर्म के मर्म का ज्ञान कराया और लंगर प्रथा का एक ऐसा अनूठा और अद्भुत मंत्र दिया जिसे आज भी सिख ही नहीं पूरा समाज अपना रहा है. इस परम्परा में उन्होंने भोजन तैयार करवा कर भूखे और साधु संतों तृप्त कर सच्चा सौदा किया. विश्व कल्याण के लिए उन्होंने इस प्रथा को शुरु किया न कि किसी एक जाति, धर्म या देश के लोगों के लिए.
दक्षिण की यात्रा में भटकों का उद्धार किया
सिखों के प्रथम सतगुरु नानक देव जी महाराज ने अपनी दूसरी धर्म यात्रा जिसे वे उदासी कहते थे, अप्रैल 1510 में शुरु की और 1514 तक चलती रही. इस यात्रा में गुरु जी कर्नाटक, गुजरात और महाराष्ट्र के नांदेड़, बहावलपुर के बाद हैदराबाद तथा गोलकुंडा संतों, पीर फकीरों से ज्ञान चर्चा करते तथा ईश्वर की राह से भटके हुए लोगों का उद्धार करते हुए कर्नाटक के छोटे से जिले बिदर में पहुंचे जो हैदराबाद से 110 किलोमीटर और गुलबर्गा से 40 किलोमीटर की दूरी पर है. भाई मरदाना जी उनकी इस यात्रा में साथ में थे. गुरु महाराज ने पथरीले रास्तों से होते हुए शहर के बाहर डेरा डाला और गुरुवाणी का कीर्तन करने लगे. सुरीली वाणी से कीर्तन सुनकर लोग मुग्ध हो गए और रोज उनके पास कीर्तन सुनने के लिए आने लगे.
पैर के अंगूठे के दबाव से निकल पड़ा मीठे जल का फौव्वारा
धीरे धीरे पूरे शहर और आसपास के क्षेत्रों में चर्चा होने लगी कि उत्तर क्षेत्र से कोई महान संत आए हैं जो बहुत ही मीठी धुन में कीर्तन और प्रवचन करते हैं. लोगों को उनकी वाणी अच्छी लगने लगी और आशीर्वाद पाने के लिए उनके पास आने लगे. गुरु जी महिमा सुन कर वहां अपने अनुयायियों के साथ रहने वाले मुस्लिम सूफी पीर जलालुद्दीन और याकूब अली भी उनके दर्शन करने पहुंचे. गुरु महाराज का नूर भरा चेहरा देख कर पीर और उनके चेले दंग रह गए पर कुछ बोल नहीं सके. कुछ समय बाद संभल कर उन्होंने नमस्कार कर ज्ञान चर्चा शुरु की. गुरु साहिब ने हर सवाल का माकूल जवाब देकर उनकी शंकाओं का समाधान किया. अंत में पीर और उनके चेलों ने कहा कि इस पथरीले इलाके में पीने के पानी की समस्या है. खोदाई करने पर पानी मिला तो वह भी खारा निकला. कुछ क्षण मौन और ध्यान करने के बाद गुरु महाराज ने सतनाम वाहेगुरु का जाप करते हुए एक स्थान के पत्थर हटवाए और अपने पैर के अंगूठे से धरती पर थोड़ा दबाव बना कर निशान लगाया. सब आश्चर्यचकित हो गए कि प्रभु कृपा से वहां पर पानी का एक फौव्वारा फूट पड़ा जिसका जल बिल्कुल शुद्ध, स्वच्छ और पीने लायक था. यह बात अप्रैल 1512 की है वह स्थान जल्द ही नानक झीरा के नाम से प्रसिद्ध हो गया और आज भी चरण पादुका के रूप में कायम है, स्थानीय लोग पठारी इलाके में अपनी पानी की जरूरतें इसी फौव्वारे से पूरी करते हैं. नानक झीरा साहिब के बारे में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि गुरु गोविंद सिंह जी महाराज के पंज प्यारों में से एक साहिब सिंह जी बिदर के ही रहने वाले थे.