त्रेता युग में भक्तवत्सल भगवान श्री राम चार रूप धारण कर अयोध्या के चक्रवर्ती महाराज श्री दशरथ के पुत्र रूप में चैत्र शुक्ल नवमी को अवतरित हुए।
Shri Bhaktamal : “श्री भक्तमाल” के अनुसार श्री विष्णु जी ने प्रतिज्ञा की थी जब-जब धर्म की हानि होगी, असुर, अधम और अभिमानी लोगों की अधिकता होगी, तब-तब मैं किसी न किसी रूप में धरती पर अवतार लूंगा। अपनी इसी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए त्रेता युग में भक्तवत्सल भगवान श्री राम चार रूप धारण कर अयोध्या के चक्रवर्ती महाराज श्री दशरथ के पुत्र रूप में चैत्र शुक्ल नवमी को अवतरित हुए। उनके जन्म के कारण ही चैत्र मास की नवमी तिथि को रामनवमी कहा जाता है। महारानी कौशल्या के गर्भ से राम, कैकेयी के गर्भ से भरत और सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण व शत्रुघ्न ने जन्म लिया।
उचित समय पर चारों बालकों का जातकर्म, नामकरण, चूड़ाकरण अर्थात मुंडन और जनेऊ धारण कराने के कर्म हुए ही थे कि एक दिन ऋषि विश्वामित्र आए और राजा दशरथ से यज्ञों की रक्षा के लिए राम और लक्ष्मण को मांग कर ले गए। आश्रम में होने वाले यज्ञ में विघ्न डालने वाले ताड़का, मारीच, सुबाहु आदि न जाने कितने ही राक्षसों को राम और लक्ष्मण की जोड़ी ने मार डाला जिससे ऋषि का यज्ञ बिना किसी बाधा के पूरा हो सका। इसके बाद ऋषि विश्वामित्र दोनों राजकुमारों को लेकर जनकपुर में सीता स्वयंवर देखने पहुंचे जहां पर तीनों लोकों के वीरों का जमघट था लेकिन वे शिव जी के धनुष को हिला तक नहीं सके जबकि राम ने उसे एक क्षण में ही तोड़ डाला। इस शुभ समाचार को शीघ्रता से अयोध्या भेजा गया तो महाराजा दशरथ बारात लेकर आए लेकिन यहां तो चारों राजकुमारों का विवाह हो गया।
वृद्धावस्था जानकर राजा दशरथ ने अपने सबसे बड़े पुत्र राम का राज्याभिषेक करने की इच्छा जताई और तैयारियां शुरू कराई लेकिन कैकेयी ने देवताओं की माया से मोहित अपनी दासी मंथरा के कहने पर राजा से अपने दोनों वर मांगे जिनमें पहले से राम को 14 वर्ष का वनवास और दूसरे से भरत का राज्याभिषेक। पिता की आज्ञा का पालन करते हुए राम वन को चले तो उनके साथ उनकी पत्नी सीता और लक्ष्मण भी चल पड़े। दशरथ जी ने अपने मंत्री सुमंत्र को साथ भेजा लेकिन श्रृंगवेरपुर में गंगा तट पर श्री राम ने सुमित्रा जी सहित अयोध्या वासियों को विदा कर दिया और खुद पत्नी तथा भाई के साथ कई नदियां और नगर पार करते हुए चित्रकूट पहुंचे और पत्तों की कुटिया बना कर रहने लगे।
इधर पूरे घटनाक्रम से आहत राजा दशरथ ने प्राण त्याग दिए और भरत जी ने राजा बनने से इनकार कर श्री राम को वापस लाने की ठानी लेकिन श्री राम ने पिता के आदेश को मानते हुए वनवास न छोड़ने का निर्णय लिया तो भरत जी उनकी चरण पादुका लेकर अयोध्या आ गए और उन्हें ही सिंहासन पर विराजमान कर स्वयं नंदीग्राम में रहकर देखरेख करने लगे।
श्री राम ने दूर वन में जाने की सोची और दंडकारण्य नाम के जंगल में पहुंच गये जहां महान संतों का दर्शन करने के साथ ही कई राक्षसों का संहार किया। यहीं पर उन्होंने मनचाहा रूप बनाने वाली राक्षसी सूर्पनखा का नाक-कान काट कर उसे कुरूप कर दिया। सूर्पनखा के उकसाने पर खर-दूषण आदि ने हमला बोला तो श्री राम-लक्ष्मण की जोड़ी ने 14 हजार राक्षसों को मार डाला। रावण ने बदला लेने के लिए मारीच की मदद से सीता का अपहरण किया तो जटायु ने रास्ते में बाधा पहुंचाई। रावण ने जटायु को घायल कर दिया, घायल जटायु ने सीता के अपहरण की जानकारी देते हुए श्री राम की गोद में प्राण त्यागे।
श्री राम सीता की खोज करते हुए शबरी के आश्रम में गए और उनके संकेत पर हनुमान जी से मिल कर सुग्रीव से मित्रता की। बाद में हनुमान जी ने ही समुद्र पार कर जानकी जी का पता लगाया तो वानरों की सेना के साथ पहले समुद्र में पुल बनाया फिर लंकाधिपति रावण के यहां चढ़ाई कर उसे मार कर सीता को प्राप्त किया। इसके बाद माता सीता ने अग्निपरीक्षा दी और निष्कलंक साबित हुईं। रावण के भाई विभीषण को लंका का राजपाट सौंपने के बाद देवताओं से वर प्राप्त कर मरे हुए वानरों को फिर से जीवन दे दिया। सभी साथियों को संग लेकर पुष्पक विमान से अयोध्या के लिए चले और भरद्वाज मुनि के आश्रम में विश्राम के लिए रुकने के साथ ही हनुमान जी को अयोध्या भेज स्वयं भी अयोध्या नगरी पहुंचे। वशिष्ठ मुनि के आदेश पर राज सिंहासन पर विराजे और लंबे समय तक राज किया। उनकी राज्य व्यवस्था को आज भी आदर्श माना जाता है।