“भक्तिरसबोधिनी” के टीकाकार श्री प्रियादास जी ने सरल शब्दों में जनमानस को भगवान के भक्तों के बारे में जानकारी दी।
Shri Bhaktamal : “श्री भक्तमाल” ग्रंथ के रचयिता नाभादास के बाद गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित महान ग्रंथ की टीका “भक्तिरसबोधिनी” के टीकाकार श्री प्रियादास जी के बारे में जानना जरूरी है। जिन्होंने सरस और सरल शब्दों में जनमानस को भगवान के भक्तों के बारे में जानकारी दी।
उन्होंने “श्री भक्तमाल” की रचना विक्रमी संवत 1650 से 1680 के बीच (ईस्वी सन 1593 से 1623) जयपुर के गलतापीठ नाम के स्थान पर की है जो श्री रामानन्द सम्प्रयादय का की अत्यंत प्राचीन पीठ है। इस ग्रंथ को लिखने के करीब सौ साल बाद विक्रमी संवत 1769 (ईस्वी सन 1712) में श्री प्रियादास जी ने “भक्तिरसबोधिनी” के नाम से टीका लिखी। टीका लिखने की प्रेरणा उन्हें स्वयं नाभादास जी ने ध्यान करने के दौरान दी जिसे उन्होंने स्वयं लिखा है।
ताही समय नाभाजू ने आज्ञा दई लई।
धारि टीका विस्तारि भक्तमाल की सुनाइए।।
प्रियादास जी ने एक स्थान पर कहा भी कि मैं महाप्रभु श्री कृष्ण चैतन्य एवं गुरुदेव श्री मनोहरदास जी के चरणों का अपने हृदय में ध्यान करते हुए नाम संकीर्तन कर रहा था, तभी नाभादास जी ने आज्ञा दी कि भक्तमाल की विस्तारपूर्वक टीका करके मुझे सुनाओ। उन्होंने यह भी कहा कि यह टीका कवित्त छन्द में हो क्योंकि यह मुझे बहुत प्रिय है।
बताया जाता है कि श्री प्रियादास जी का जन्म गुजरात में सूरत के राजपुरा नाम के गांव में इनका जन्म हुआ लेकिन बाल्यकाल में ही वे वृन्दावन आ गए। यहां आकर वे श्री राधारमण जी के मंदिर में रुके और श्री मनोहर दास जी के शिष्य बन गए। वे तो गुरुदेव के सानिध्य में भगवत भजन करते हुए जीवन को सार्थक करने का प्रयास कर रहे थे तभी ध्यानावस्था में उन्हें नाभादास का आदेश मिला तो टीका लिखने में लग गए। उन्होंने फाल्गुन कृष्ण पक्ष सप्तमी संवत 1769 (ईस्वी सन 1712) को टीका पूरी की। उन्होंने लिखा भगवतकृपा प्राप्त करने के लिए जिन गुणों की जरूरत होती है, वो गुण भगवान के भक्तों का चरित्र सुनने से मिलते हैं। अन्य साधनों में साधना का अभिमान आने की संभावना रहती है जबकि भक्त चरित्र सुनने से विनय और शरणागत का भाव पैदा होता है।