Vyas Birth : जानिए धर्मराज यमराज को किसने दिया शाप और मनुष्य योनि में आकर उन्हें क्या बनना पड़ा 

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Vyas Birth : ऋषि पाराशर और सत्यवती से उत्पन्न कृष्णद्वैपायन व्यास जन्म के कुछ समय बाद ही कठोर तप करने चले गए। हस्तिनापुर का विशाल साम्राज्य बिना वंश के समाप्ति से बचाने के लिए माता सत्यवती के आह्वान पर उपस्थित हुए और उनके आदेश पर अम्बिका से धृतराष्ट्र और अम्बालिका से पाण्डु को जन्म दिया किंतु एक जन्मजात नेत्रहीन तो दूसरे पाण्डु यानी पीलिया रोग से ग्रस्त थे। ऐसे में अम्बालिका की प्रेरणा से व्यास ने उसकी दासी से विदुर जी की उत्पन्न किया। 

यमराज मनुष्य योनि में बने धर्मात्मा विदुर 

वास्तव में धर्मात्मा विदुर पूर्व जन्म में धर्मराज यमराज थे जिन्हें मांडव्य ऋषि के शाप के कारण मनुष्य योनि में जन्म लेना पड़ा। राजा जनमेजय ने महाभारत की कथा सुनते हुए वैशम्पायन ऋषि से कहा, आप मुझे विदुर महाराज के जन्म और मांडव्य ऋषि के शाप के बारे में विस्तार से बताइए। इस पर ऋषि ने उनसे कहा, हे राजन ! मांडव्य नाम के एक धर्मज्ञ, धैर्यवान, तपस्वी और यशस्वी ऋषि थे। वे अपने आश्रम के बाहर एक वृक्ष के नीचे हाथ ऊपर उठा कर तपस्या कर रहे थे जिसमें उन्होंने मौन व्रत भी ले रखा था। एक दिन कुछ लुटेरे लूट के माल के साथ उनके आश्रम में आए जिनके पीछे राजा के सैनिक लगे थे। सुरक्षित स्थान जान लुटेरों ने आश्रम में लूट का माल रख दिया और छिप गए। सिपाहियों ने ऋषि से लुटेरों के बारे में पूछा किंतु मौन तपस्या के कारण वे कुछ नहीं बोले। सिपाहियों ने आश्रम की तलाशी ली तो माल सहित चोर पकड़े गए। सिपाहियों ने लूट के माल और चोरों के साथ ऋषि को भी पकड़ लिया और राजा के दरबार में पेश किया। 

राजा ने ऋषि से मांगी क्षमा

राजा ने सिपाहियों से पूरी जानकारी कर सबको सूली पर चढ़ाने का निर्णय दिया। चोरों का तो जल्द ही निधन हो गया किंतु मांडव्य ऋषि शूली पर बिना कुछ खाए-पिए शूली पर बैठे रहे किंतु उनकी मृत्यु नहीं हुई। उन्होंने बहुत से ऋषियों का वहां आह्वान किया तो रात के समय पक्षी के रूप में आए और दुख व्यक्त करते हुए उनका अपराध पूछा। तपस्वी ऋषि ने कहा, यह सब मेरे ही अपराधों का फल है। कुछ दिनों के बाद पहरेदारों ने आकर देखा तो ऋषि को जीवित देख दंग रह गए। उन्होंने राजा को पूरी बात बतायी तो राजा ने उनके सामने पहुंच कर प्रार्थना करते हुए कहा, मुनिवर ! आप मुझे क्षमा करें, अज्ञानता के कारण मुझसे यह अपराध हो गया है। ऋषि शूली से उतारे गए किंतु शूल न निकल सका तो शूल के साथ ही तपस्या करते रहे और दुर्लभ लोकों की प्राप्ति की। शूल के कारण उनका नाम अणीमांडव्य भी पड़ गया। 

धर्मराज को दिया शाप

ऋषि मांडव्य ने धर्मराज की सभा में जाकर उनसे अपना अपराध पूछा, आपने एक छोटे से पतिंगे की पूंछ में सींक अड़ा दी थी, उसी का फल शूल के रूप में मिला है। उन्होंने कहा जिस तरह थोड़े से दान का कई गुना फल मिलता है उसी तरह थोड़े से अधर्म का भी कई गुना फल मिलता है। अब ऋषि का प्रश्न था, ऐसा मैने कब किया तो उनका जवाब था बचपन में। ऋषि ने कहा 12 वर्ष तक के बालक जो कुछ भी करता है वह अधर्म नहीं होता क्योंकि उसे धर्म-अधर्म का ज्ञान नहीं होता है। हे धर्मराज ! तुमने एक छोटे से अपराध का इतना बड़ा दंड दिया है। तुम्हें मालूम होना चाहिए कि सभी प्राणियों के वध की अपेक्षा ब्राह्मण का वध बड़ा माना गया है। इसलिए अब तुम्हें शूद्र के रूप में जन्म लेकर मनुष्य योनि में जाना होगा। मैं आज से संसार में नियम बनाता हूं कि 14 वर्ष की अवस्था तक किए गए कर्मों पर पाप नहीं लगेगा।

   

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