Dharma : गुरु द्रोण को जब यह लगा कि उनके शिष्य हस्तिनापुर के राजकुमार अब निपुण हो गए हैं, तो उन्होंने कृपाचार्य, सोमदत्त, बाल्हीक, भीष्म, व्यास और विदुर जी आदि के सामने महाराज धृतराष्ट्र से कहा, राजन ! सभी राजकुमार अब सब प्रकार की विद्या में निपुण हो चुके हैं, आपकी अनुमति हो तो सबके सामने इनके कौशल का प्रदर्शन किया जाए। उनकी बात पर प्रसन्नता पूर्वक धृतराष्ट्र बोले, आचार्य ! आपने ऐसा कर हमारा बहुत बड़ा उपकार किया है, आप जहां भी उचित समझें इसका आयोजन करें। उन्होंने विदुर जी को आचार्य की इच्छा के अनुरूप व्यवस्था कराने का निर्देश दिया।
सज गया रंगमंडप
द्रोणाचार्य ने रंगमंडप के लिए एक समतल भूमि तलाशी और शुभ मुहूर्त में पूजन कर वहां राजघराने, सामान्य स्त्री पुरुषों के बैठने के लिए उचित आसन लगवाए। नियत दिन और समय पर राजा धृतराष्ट्र, भीष्म और कृपाचार्य के साथ रंगमंडप में उपस्थित हुए। राजपरिवार की गांधारी, कुन्ती आदि भी आईं और उचित स्थान पर बैठ गयीं। नगर के अन्य लोग भी अपने-अपने स्थानों पर बैठ गए। आचार्य द्रोण भी अपने पुत्र अश्वत्थामा के साथ पहुंचे।
मंगलपाठ के बाद राजकुमार दिखाने लगे कौशल
देवताओं की पूजा और ब्राह्मणों द्वारा मंगलपाठ करने के बाद राजकुमारों ने धनुष बाण का कौशल दिखाया। इसके बाद रथ, हाथी और घोड़ों की सवारी कर युद्ध चतुराई का प्रदर्शन हुआ। कुश्ती लड़ने के बाद ढाल तलवार लेकर पैंतरेबाजी भी दिखाई। भीमसेन और दुर्योधन दोनों हाथों में गदा लेकर रंगभूमि में उतरे तो सभी उनकी ओर देखने लगे। विदुर जी राजा धृतराष्ट्र को कुन्ती गांधारी को आंखों देखा हाल बताते जाते। उन दोनों का युद्ध कौशल देख कर दर्शकों के भी दो दल हो गए, कुछ भीम तो कुछ दुर्योधन की जय बोलने लगे। भीड़ का शोर सुन कर गुरु द्रोणाचार्य ने अपने पुत्र अश्वत्थामा से कहा, बेटा अब इसे रोको अन्यथा बात बढ़ जाएगी तो दर्शक गड़बड़ कर सकते हैं।