राजा ययाति ने असुरराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से उत्पन्न तीसरे पुत्र से यौवन प्राप्त कर इच्छानुसार भोग किया।
King Puru : राजा ययाति ने असुरराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से उत्पन्न तीसरे पुत्र से यौवन प्राप्त कर इच्छानुसार भोग किया। इसके साथ ही वो अपना राज धर्म नहीं भूले और धर्मानुसार आचरण करने के साथ ही डाकू लुटेरों को उचित दंड देते रहे। इंद्र के समान प्रजा पालन करते हुए उन्होंने मनुष्य लोक के सुख तो भोगे ही, फिर नंदनवन, अलका पुरी और सुमेरु पर्वत की चोटी पर रहकर भी जीवन का आनंद लिया।
सुख की परिभाषा
जब उन्होंने देखा कि अब एक हजार साल पूरे हो रहे हैं तो उन्होंने अपने पुत्र पुरु को बुलाया और बोले, बेटा ! मैने अपनी वृद्धावस्था तुम्हें देकर तुमसे तुम्हारा यौवन प्राप्त कर एक हजार वर्ष तक विषय भोग किया किंतु समझ में आ गया कि विषयों के भोग की कामना कभी भी समाप्त नहीं होती है। यह तो अग्नि के घी के समान है कि उसमें जितना भी घी डालोगे वह बढ़ती ही जाएगी। पृथ्वी पर अन्न, सम्पत्ति, सोना-चांदी, स्त्री आदि का चाहे जितना भी भोग करो, एक कामुक व्यक्ति की कामना कभी भी पूरी नहीं होती है। इसलिए सुख की प्राप्ति उनके भोग से नहीं बल्कि त्याग से होती है। यह तृष्णा बूढ़े होने पर भी बूढ़ी नहीं होती है इसलिए यह एक प्राणान्तक रोग है। इसलिए सब कुछ छोड़ कर मैं अपना मन ब्रह्म में लगाऊंगा। मैं तुम्हारे त्याग से प्रसन्न हूं इसलिए अपनी जवानी वापस ले लो और राज्य ग्रहण करो। इसके साथ ही पुरु ने पिता से यौवन पुनः प्राप्त कर लिया।
ययाति ने किया अपने वादा पूरा
वैशम्पायन जी राजा जनमेजय को महाभारत की कथा सुनाते हुए कहते हैं कि जैसे ही पुरु के राज्याभिषेक की जानकारी उनके राज्य की जनता और ब्राह्मणों को हुई तो वे आगे आकर बोले, राजन ! परम्परा के अनुसार राज्य हमेशा ज्येष्ठ पुत्र को दिया जाता है इसलिए आपको भी पुरु के स्थान पर बड़े पुत्र यदु को राज्य देना चाहिए। राजा ययाति ने सबको शांत करते हुए पूरा घटनाक्रम बताते हुए कहा कि गुरु शुक्राचार्य ने स्वयं मुझसे कहा था कि जो पुत्र तुम्हें अपनी जवानी देने को राजी हो, राज्य उसी को देना। मैंने सबसे पहले यदु से ही पूछा था किंतु उसके सहित सभी ने इनकार कर दिया और केवल पुरु ही ऐसा निकला जिसने इस कार्य को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इसलिए आप लोगों को भी पुरु को ही राजा के रूप में स्वीकार करना चाहिए।
पुरु का हुआ राज्याभिषेक
महाभारत के आदिपर्व के अनुसार नहुषनंदन राजा ययाति की बातों से सहमत होते हुए प्रजा ने धूमधाम और उत्साह के साथ पुरु का राज्याभिषेक किया। इसके बाद राजा ययाति वानप्रस्थ की दीक्षा लेकर ब्राह्मणों और तपस्वियों के साथ नगर से चले गए। यदु से राज्याधिकार रहित यदुवंशियों, तुर्वसु से यवनों, द्रुह्यु से भोजों और अनु से म्लेच्छों की उत्पत्ति हुई। वैशम्पायन जी ने कहा, हे राजन पुरु से ही पुरु वंश की उत्पत्ति हुई जिसमें तुम्हारा भी जन्म हुआ। वन में ययाति ने घोर तप किया जिससे उनकी कीर्ती त्रिलोक तक में फैल गयी और शरीर छूटने पर स्वर्ग की प्राप्ति हुई।