Skip to content
Shri Bhaktamal : श्री हरि ध्यान निष्ठ भक्तों की श्रृंखला में नौ योगीश्वरों के बाद नाम आता है श्रुतदेव जी का। “श्री भक्तमाल” के अनुसार मिथिला में वहां के नरेश जनक राजवंश के महाराजा बहुलाश्व भगवान के परमभक्त थे। उन्हीं के नगर में भगवान के परमभक्त श्रुतदेव जी भी रहते थे, जो निर्धन ब्राह्मण, विद्वान, बुद्धिमान और गृहस्थ थे। दिन भर भगवान की भक्ति करते और बिना मांगे जो मिल जाता उसी से जीवन निर्वाह कर लेते। कोई एक दिन से कुछ अधिक उपभोग सामग्री देना चाहे तो वो मना कर देते थे।
एक बार की बात है कि भगवान श्री कृष्ण की पटरानी सत्यभामा के पिता सत्राजित की हत्या शतधन्वा ने उनके भवन में चोरी से घुस कर दी। उस समय श्री कृष्ण द्वारका में नहीं थे लेकिन जानकारी मिलने पर हस्तिनापुर आए तो शतधन्वा घोड़े में बैठ कर भागा। बलराम जी के साथ श्री कृष्ण ने रथ में बैठकर उसका पीछा किया और मिथिला नगर के बाहर उपवन में उसे मार दिया। श्री कृष्ण तो उसका वध करने के बाद द्वारका लौट गए किंतु बलराम जी मिथिला में महाराजा बहुलाश्व के पास जा पहुंचे। महाराज की सेवा और प्रेम से वे इतना प्रसन्न हुए कि द्वारका से बार-बार संदेश आने के बाद भी नहीं पहुंचे और तीन वर्ष तक मिथिला में ही रहे और फिर द्वारका गए।
जब से महाराज बहुलाश्व और श्रुतदेव ने सुना कि भगवान मिथिला के बाहर उपवन तक आ कर बिना उन्हें दर्शन दिए चले गए तो दोनों हृदय से व्याकुल रहने लगे। दोनों को लगा कि उनकी भक्ति में ही कमी है। भगवान अपने भक्त की इच्छा को कभी टाल ही नहीं सकते सो द्वारकानाथ रथ पर सवार हो अपने भक्तों को दर्शन देने के लिए मिथिला पधारे। उनके साथ देवर्षि नारद, वामदेव, अत्रि, व्यास जी, परशुराम जी, असित,आरुणि, शुकदेव जी, बृहस्पतिदेव, कण्व, मैत्रेय, च्यवन आदि ऋषि मुनि भी आए। उनके आने का समाचार सुन सभी नगर वासी तरह-तरह की भेंट लेकर नगर से बाहर आए और जमीन पर लेट कर उन्हें प्रणाम करने लगे। महाराजा बहुलाश्व और श्रुतदेव भी एक किनारे हाथ जोड़ कर खड़े थे कि भगवान उनके घर जाने को आए हैं।
अंतर्यामी भगवान श्री कृष्ण समझ गए और तुरंत ही ऋषि मुनियों सहित दो रूप रख कर दोनों भक्तों के साथ उनके घर गए। बहुलाश्व ने ऋषियों सहित उन्हें सिंहासन पर बैठा चरण धोए और विधिपूर्वक पूजा कर प्रार्थना कि भगवान कुछ दिन यहां निवास कर मुझे सेवा का अवसर दें। दूसरी ओर श्रुतदेव भगवान को लेकर अपनी कुटिया पर पहुंचे और उनके प्रेम में इतना मगन हो गए कि अपना दुपट्टा लहरा कर नाचते हुए भजन गाने लगे। श्रुतदेव ने भगवान के चरण धोए और चरणोदक को माथे पर लगाया। पूजा की विधि भूल उन्होंने कंद, मूल तथा फल और खस पड़ा शीतल जल दिया। तुलसी दल और कमल अर्पित किया। भगवान अपने भक्त के भाव देख प्रसन्न हो रहे थे। जब श्रुतदेव पूजा कर कुछ सामान्य हुए तब भगवान ने ऋषियों और संतों का महात्म्य बता उनका पूजन करने का इशारा किया। दरअसल श्रद्धाभाव में डूबे श्रुतदेव जब अपने को ही भूल गए तो उन्हें यह बात कैसे याद रहती। भगवान का इशारा पाते ही उन्होंने ऋषियों का भी उसी भांति पूजन किया। प्रभु अपने इस गरीब भक्त के घर भी उतने ही दिन रहे जितने दिन महाराज के महल में। दोनों से विदा ले भगवान द्वारका चले गए। इस लीला से भगवान ने संदेश दिया कि वे राजा और कंगाल दोनों के लिए समान हैं। महाराज बहुलाश्व और श्रुतदेव ने आनंदकन्द मुकुन्द का चिंतन करते हुए अंत में उनके धाम को प्राप्त हुए।