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भगवान विष्णु के 24 अवतारों में एक नर-नारायण अवतार भी है।

Shri Bhaktamal : श्री ऋषभ अवतार की कथा

Shri Bhaktamal : “श्री भक्तमाल” ग्रंथ में श्री यज्ञ अवतार की कथा के बाद श्री ऋषभ अवतार की कथा का वर्णन है। महाराजा आग्नीध्र के पुत्र राजा नाभि ने संतान प्राप्ति के लिए अपनी पत्नी मेरूदेवी के साथ भगवान यज्ञपुरुष का यज्ञ किया। यज्ञ के दौरान भक्तवत्सल भगवान यज्ञ प्रकट हुए तो सभी ने आदरपूर्वक उनका पूजन किया और ऋषियों ने कहा कि इस यज्ञ के यजमान राजर्षि नाभि आपके समान पुत्र की कामना से आराधना कर रहे हैं। आप इनकी इच्छा पूरी करें। 

उनकी बात सुनने के बाद भगवान यज्ञपुरुष बोले, हे मुनियों ! मेरे समान दूसरा तो कोई है नहीं लेकिन ब्राह्मणों का वचन खाली नहीं जाना चाहिए इसलिए में अपनी अंश कला से नाभि के यहां अवतार लूंगा। इतना कह कर भगवान अंतर्ध्यान हो गए। निश्चित समय पर महारानी मेरुदेवी के गर्भ से नाभिनन्दन का जन्म हुआ जिनके जन्म के समय से ही भगवान विष्णु के वज्र अंकुश आदि चिन्ह बने थे। महाराजा नाभि ने श्रेष्ठ गुणों से युक्त होने के कारण उनका नाम ऋषभ अर्थात श्रेष्ठ रखा। जैसे ही वे बड़े होकर राजकाज संभालने लायक हुए, उनका राज्याभिषेक कर महाराज नाभि अपनी पत्नी के साथ बद्रीकाश्रम चले गए और वहां भगवान की आराधना करते हुए उन्ही में विलीन हो गए। 

भगवान ऋषभदेव सभी विषयों के जानकार होने के बाद भी ब्राह्मणों के द्वारा बतायी गयी विधि से प्रजा का पुत्रवत पालन करते थे। एक बार इंद्रदेव ने ईर्ष्या के कारण उनके राज्य में वर्षा रोक दी तो भगवान ऋषभदेव ने अपनी योगमाया के प्रभाव से अपने क्षेत्र में जल वर्षा कराई। अपने लोगों को ग्रहस्थ धर्म की शिक्षा देने के लिए देवराज इंद्र की कन्या जयन्ती के साथ विवाह किया और अपने ही गुणों के समान सौ पुत्रों को जन्म दिया। 

भगवान ऋषभदेव के सौ पुत्रों में भरत नाम के पुत्र सबसे बड़े और भगवान के भक्त थे। ऋषभदेव जी ने पृथ्वी का पालन करने के लिए उन्हें राजगद्दी पर बैठा कर स्वयं महामुनियों को भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का परमहंस के अनुसार शिक्षा देने लगे। लोगों को शिक्षा देते हुए परम आनंद का अनुभव करते हुए दिगम्बर स्वरूप में इधर-उधर भ्रमण करते हुए वनों  में आग की लाल-लाल लपटों में लीन हो गए।  

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