Shri Bhaktamal Dhanvantari Avatar : देवताओं और असुरों ने अमृत प्राप्त करने के लिए क्षीरसागर का मंथन किया, तब अनेक दिव्य रत्न प्रकट हुए। सबसे अंत में भगवान विष्णु श्री हरि के अंश रूप में भगवान धन्वंतरि चतुर्भुज स्वरूप में एक हाथ में अमृत कलश, तो एक में आयुर्वेद, एक में औषधियां और एक में शंख लेकर निकले। उनकी कृपा से देवताओं को अमृत और यज्ञ का भाग वापस मिला, जिसे असुरों ने छीन लिया था। भगवान धन्वंतरि का प्राकट्य कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को हुआ था इसीलिए प्रत्येक वर्ष उस दिन धनतेरस का पर्व मनाया जाता है।
समुद्र मंथन से निकले अमृत का वितरण करने के बाद देवराज इंद्र ने भगवान धन्वंतरि से प्रार्थना की कि वे देवताओं के वैद्य (डॉक्टर) बन जाएं। भगवान ने उनका अनुरोध स्वीकार किया और अमरावती में निवास करते हुए अपने कार्य में लीन हो गए। उस समय तक चिकित्सक के रूप में यज्ञों का अंश अश्वनी कुमारों को मिलता था क्योंकि वे पहले से इसी कार्य में संलग्न थे। धन्वतंरि ने विष्णु जी से इस बारे में मार्गदर्शन मांगा तो उन्होंने कहा आप मेरे ही अंश हैं इसलिए आप मेरे में विलीन हो जाएंगे और उचित समय व स्थान पर आपका फिर से प्राकट्य होगा तो आपको यज्ञांश भी मिलेगा और आप जनसेवा भी करेंगे। त्रेतायुग के अंत में काशी के महाराजा धन्व भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे किंतु उनकी कोई संतान नहीं थी। इसके बाद विष्णु जी ने स्वप्न में दर्शन दिए जिसके आधार पर उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई तो उसका नाम धन्वंतरि रखा जिन्हें पूरा जीवन आयुर्वेद का अध्ययन करने के लिए पृथ्वी ही नहीं अन्य लोकों की यात्रा में व्यतीत कर दिया और अंत समय में उन्होंने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि उन्होंने जो कुछ भी पढ़ा है, वह अगले जन्म में भी याद रहे क्योंकि यह जीवन तो अध्ययन में ही बीत गया, अगले जीवन में लोकसेवा करनी है। भगवान ने एवमस्तु कहा और अंतर्ध्यान हो गए। कुछ समय बाद जब पृथ्वी पर अनेक बीमारियां फैलने लगी, तब इंद्रदेव ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। भगवान धन्वंतरि ने काशी के राज परिवार में दिवोदास के रूप में पुनर्जन्म लिया और लोक कल्याण के लिए अनुसंधान कर ऐसी दवाओं का विकास किया जिनसे उन रोगों का नाश हो सका। इनके प्रमुख शिष्य महर्षि विश्वामित्र के पुत्र आचार्य सुश्रुत थे जिन्होंने आयुर्वेद का प्रचार प्रसार और ग्रंथों की रचना की।