Shri Bhaktamal : एक बार परम ऋषियों सनकादिक आदि ने अपने पिता ब्रह्मा जी से पूछा, पिताजी ! चित्त तो विभिन्न विषयों में घुसा रहता है और गुण भी चित्त यानी मन के उतार-चढ़ाव में ही बने रहते हैं। ऐसे में जो लोग इस संसार सागर से पार होकर मुक्तिपद पाना चाहते हैं, वो इन दोनों को ही एक दूसरे से कैसे अलग कर सकते हैं। वैसे तो ब्रह्मा जी संसार में समस्त प्राणियों के जन्मदाता हैं फिर भी वे अपनी बुद्धि से इस प्रश्न का समुचित समाधान नहीं निकाल सके। इस स्थिति में उन्होंने भक्तिभाव से भगवान का चिन्तन किया।
परमपिता ब्रह्मा जी के भगवान का चिंतन करते हुए भगवान हंस का रूप धारण कर उनके सामने प्रकट हुए। सनकादिक तथा ब्रह्मा जी ने उनका परिचय पूछा। उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान बोले, ब्राह्मणों ! आपने जो जिज्ञासा व्यक्त की है, उसका उत्तर देने के लिए मैं आया हूं। परमार्थ रूप वस्तु अर्थात परम सत्य जो सार वस्तु है वो नाम रूप आदि से बहुत दूर है। ऐसी स्थिति में आत्मा के संबंध में आप लोगों का ऐसा प्रश्न भला युक्तिसंगत कैसे हो सकता है। मनुष्य, पशु-पक्षी आदि सभी शरीर पंचभूतात्मक होने के कारण अभिन्न ही हैं अर्थात जो भिन्न न हो जिसे तोड़ा न जा सके। और परमार्थ भी अभिन्न ही है।
हंस रूपी भगवान ने कहा कि “आप कौन हैं” प्रश्न केवल आपकी वाणी का व्यवहार है, विचारपूर्वक नहीं है इसलिए निरर्थक है। मन, वाणी, दृष्टि, और अन्य इंद्रियों से जो कुछ भी ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूं और मुझसे अलग कुछ भी नहीं है। इस बात को आप लोग तत्व विचार के माध्यम से आसानी से समझ सकते हैं अर्थात सत्य या वास्तविकता पर विचार करना जिसमें किसी भी विषय के मूल और वास्तविक स्वरूप को समझने की कोशिश की जाती है।
उन्होंने उन लोगों को पुत्र संबोधित करते हुए कहा, यह मन चिंतन करते करते विषयों में खो जाता है और विषय मन में घुस जाते हैं। उन्होंने कहा यह सत्य है फिर भी विषय व मन दोनों ही मेरे स्वरूपभूत जीव के अंश हैं। अर्थात आत्मा का मन और विषय के साथ कोई संबंध नहीं है इसलिए बार-बार विषयों का सेवन करते रहने से मन विषय में और विषय भी मन में घुस जाता है। इन दोनों को अपने वास्तविक रूप से परमात्मा का साक्षात्कार कर त्याग देना चाहिए। इस तरह भगवान ने सनकादि मुनियों के संशय मिटा दिए। सनकादि मुनियों और ब्रह्मा जी ने उनका यथोचित पूजन किया फिर हंस रूपी भगवान अपने धाम को चले गए।